.डॉ भीमराव रामजी अम्बेडकर का जीवन परिचय शिक्षा कार्य
.डॉ भीमराव रामजी अम्बेडकर (14 अप्रैल, 1891 - 06 दिसंबर, 1956)
14 अप्रैल 1891 को मध्यप्रदेश के इंदौर के पास मऊ के पास महार जाति में भीमराव अंबेडकर का जन्म हुआ था बड़ौदा की गायकवाड ने इनकी शिक्षा का प्रबंध किया और लंदन से कानून की डिग्री प्राप्त की, दलित समाज में चेतना पैदा करने के लिए अखिल भारतीय अस्पृश्यता निवारण संघ और इंडेपेडेट लेबर पार्टी की स्थापना की जो आगे चलकर अखिल भारतीय अनुसूचित संघ में परिवर्तित हो गया
निम्न जाति में चेतना पैदा करने के लिए इन्होंने बहिष्कृत भारत तथा मूक नायक नामक समाचार पत्रो का प्रकाशन किया था
यह भारत के एकमात्र नेता थे जिन्होंने तीनो गोलमेज सम्मेलनों में भाग लिया था हालांकि उस समय सविनय अवज्ञा आंदोलन चल रहा था
वर्ण व्यवस्था संबंधी विचारों को लेकर गांधी जी के साथ इनका मतभेद था जो 1932 के पुना समझौते द्वारा कुछ हद तक कम हुआ, इस समझौते के माध्यम से दलित वर्गों के लिए साधारण वर्ग में ही सीटों का आरक्षण किया गया
1942 के भारत छोड़ो आंदोलन को इन्होंने अविचारित तथा मूर्खतापूर्ण कार्य की संज्ञा दी थी क्योकि उनका मानना था कि दलितों में चेतना पैदा करने के लिए अंग्रेजी शासन कुछ हद तक बना रहना जरूरी है
भारत के स्वतंत्र होने के बाद संविधान बनाने के लिए इन्हें प्रारूप समिति का अध्यक्ष बनाया गया था तथा बाद में भारत के प्रथम कानून मंत्री बने थे
इनका कथन था "मैं पैदा तो निम्न वर्ग में हुआ हूं लेकिन मरूंगा नहीं" और इस प्रकार इन्होंने अंतिम समय में बौद्ध धर्म स्वीकार कर लिया था...
भीमराव अंबेडकर की आत्मकथा के कुछ अंश
मध्यप्रदेश के महू नामक कस्बे में 14 अप्रैल 1891 को मेरा जन्म हुआ था। मैं अपने माता-पिता की चौदहवीं सन्तान था। मुझसे पहले दो भाई और दो बहनें ही जीवित थीं। मेरे पिता का नाम रामजी राव और माता का नाम भीमा बाई था । पिता सेना में काम करते थे । पंद्रह वर्ष नौकरी करने के बाद जब वे रिटायर हो गए, तब उनके सामने परिवार चलाने की समस्या आ गई । वे महू से सतारा आ गए और एक कम्पनी में चौकीदारी का काम करने लगे। किसी तरह हमारे परिवार का गुजारा चलने लगा।
सतारा में आकर ही पहली बार मुझे छुआछूत का सामना करना पड़ा। मेरे भाई-बहन इस समस्या से रूबरू हो चुके थे, इसलिए ऊंची जाति वालों से दूर ही रहते थे, लेकिन मुझे इसका कोई पता नहीं था। अतः मैं आसपास के बच्चों के साथ खेलने को दौड़ पड़ता था । आसपास के बच्चे भी मेरे साथ खेलने आ जाते थे, लेकिन तभी पीछे से कोई पकड़कर उन्हें ले जाता था। उन्हें कहा जाता था कि यह अछूत है, इसके साथ मत खेलो। कभी-कभी कोई बच्चा ही आगे बढ़कर कह देता, 'तुम अछूत हो, मेरे साथ नहीं खेल सकते ।' मैं रोते हुए घर आता तो मां मुझे समझाती, 'तुम अपने भाई-बहनों के साथ खेला करो । वे ऊंची जाति के हैं, वे तुम्हारे साथ नहीं खेलेंगे ।' मेरी समझ में नहीं आता कि क्या बात है, लेकिन मैं मां की बात से चुप हो जाता ।
अछूत होने के कारण नाई भी मेरे बाल काटने से इन्कार कर देता । मेरी बहन घर में ही मेरे बाल काटती । छह साल की उम्र में जब मुझे स्कूल भेजने की बात उठी, तब यह समस्या और बड़ी नजर आई। कोई स्कूल मुझे दाखिला देने को तैयार नहीं होता। पिताजी परेशान हो लौट आते। मां उनसे बार-बार स्कूल के बारे में पूछतीं । एक दिन पिताजी ने कह दिया, 'एक हेडमास्टर दाखिला देने को तैयार हो गया है, लेकिन उसने एक शर्त लगा दी है।'
मां के पूछने पर पिताजी ने शर्त के बारे में बताया। शर्त यह थी कि मैं किसी लड़के के पास नहीं बैठूं, बल्कि जहां लड़के अपने जूते खोलते थे, वहां बैठूं। मुझे अपने साथ अपनी टाट पट्टी भी ले जानी थी।
मां-पिताजी बात ही कर रहे थे कि मैं वहां आ गया। उनकी बातें सुनकर मैंने कहा, 'मैं जूतों के पास बैठकर पढ़ लूंगा, बस मेरा दाखिला करवा दो !' मेरी बात सुनकर पिताजी रो पड़े। मां ने मुझे छाती से चिपटा लिया । मां भी रो रही थी।
अगले दिन मैं स्कूल चला गया। लड़कों के जूते हटाकर मैं दरवाजे के पास अपनी टाट पट्टी बिछाकर बैठ गया। शिक्षक और लड़कों को लग रहा था कि शायद उनके जूते छू गए हैं। खैर मैं रोज स्कूल जाने लगा। स्कूल में छात्र और शिक्षक मुझसे अलग ही रहते । मैं भी हमेशा ख्याल रखता कि कोई छात्र या कोई सामान मुझसे छू न पाए। टिफिन के समय जिधर और लड़के होते, उसकी तरफ मुंह कर मैं खाता।
स्कूल से घर दूर था। मैं सुबह घर से निकलता और शाम को वापस आता। मैं पढ़ाई में अच्छा था। हेडमास्टर भी मेरी तारीफ करते। धीरे-धीरे कक्षा पार कर मैं पांचवीं में पहुंच गया । उन्हीं दिनों मेरी मां बीमार पड़ गई । घरेलू उपचार से वे ठीक नहीं हो पा रही थीं। एक दिन अच्छे वैद्य को बुलाना जरूरी थी, लेकिन कोशिश करने पर भी कोई वैद्य मां को देखने नहीं आ सका। ऊंची जाति के वैद्य महार जाति के रोगी के घर कैसे आ सकते थे? लिहाजा मां की बीमारी बढ़ती गई । वे मर गई। उनकी मृत्यु से मैं इतना आहत हुआ कि खाना-पीना छोड़ दिया, जबकि मुझे भूख बहुत तेज लगा करती थी और मां मुझे हर हाल में खाना खिलाती थीं मुझे इस हाल में देखकर पिताजी ने मुझे समझाया। उन्होंने मां के सपने के बारे में कहा। मां मुझे बड़ा आदमी बनाना चाहती थीं। इसके लिए पढ़ाई जरूरी थी। पिताजी के समझाने पर मैंने खाना खाया और फिर से पढ़ाई-लिखाई में लग गया।
मां की मृत्यु के बाद मैं बिना खाना लिए ही स्कूल जाने लगा। मैं ग्यारह - बारह साल का ही था, लेकिन खाने के अभाव में पढ़ाई को नुकसान नहीं होने देने का संकल्प मैंने लिया।
मेरे स्कूल के हेडमास्टर ब्राह्मण थे। सामाजिक व्यवस्था में बंधे होने के बावजूद वे दयालु स्वभाव के थे। मुझे भूखा रहता देख उन्हें दया आ गई और वे अपने पास से मुझे रोटी देने लगे । हालांकि वे सब्जी एक दोने में रखकर दूर से ही देते थे और रोटी भी दूर से ही मेरे हाथों में गिरा देते थे, लेकिन फिर भी उनका यह काम आलोचना का विषय बना रहा। लड़के आपस में कानाफूसी करते, 'ब्राह्मण होते हुए भी हेडमास्टर महार जाति के लड़के के लिए रोटी बनाकर लाते हैं ! पागल हो गए हैं।' वगैरह-वगैरह ! मुझे इन बातों से बड़ी घृणा होती। गुस्सा भी आता, लेकिन मैं मां की बात याद कर चुप रह लेता। मां ने मुझे एक बार समझाया था, अछूत होने की वजह से तुम्हें समाज में बहुत अपमान झेलने पड़ेंगे। बिना इसकी परवाह किए तुम पढ़ाई पर ध्यान देना। बड़ा आदमी बनकर तुम्हें समाज की इस कुरीति को बदलना है।' मैं मां की बात याद करता और चुप हो जाता। मां ने मुझे बिना भड़के आगे बढ़ते रहने की सीख दी थी। पांचवीं कक्षा के बाद मुझे दूसरे स्कूल में दाखिला लेना था। मेरे अंक अच्छे थे, इसलिए मुझे एलफिंस्टन हाई स्कूल में दाखिला मिल गया, लेकिन समस्या फीस की थी, घर में गरीबी थी । पिताजी ने अपनी पीतल की परात एक महाजन के पास यहां गिरवी रख दी। पिताजी उस परात को कभी छुड़ा नहीं पाए।
नए स्कूल में दाखिला करवाकर पिताजी प्राइमरी स्कूल के हैडमास्टर के पास प्रमाण पत्र के लिए गए। मैं भी उनके साथ था। पिताजी ने हेडमास्टर का आभार जताया। हेडमास्टर मुझसे वैसे भी खुश रहते थे। प्रथम श्रेणी में पास होने से वे और भी खुश थे। उन्होंने मेरा प्रमाण पत्र बनाया। उसमें मेरा पूरा नाम लिखा- भीमराव अम्बेडकर। एक ब्राह्मण का आशीर्वाद मानकर पिताजी ने मेरा यह नाम स्वीकार कर लिया।
हेडमास्टर के प्रति श्रद्धा जताने के लिए मैं उनके पैर छूने को आगे बढ़ा, लेकिन मुझे याद आया कि मैं तो उन्हें छू नहीं सकता। गुरुजी अपवित्र हो जाते, इसलिए मैं रुक गया। मैंने उनसे क्षमा मांगते हुए कहा, 'मैं आपके चरण नहीं छू सकता, अछूत जो हूं!'
गुरुजी ने मुझे खूब आशीर्वाद दिया। चलते-चलते उन्होंने मुझसे पूछा, 'तुमने पांच साल तक जूतों की जगह बैठकर पढ़ाई की, अपमान सहे, भूखे रहे, फिर भी पढ़ाई से मुंह नहीं मोड़ा। आखिर पढ़ाई में ऐसी क्या बात है ? ' मैंने कहा, 'गुरुजी, मैं पढ़-लिखकर एक नया कानून बनाऊंगा। यह कानून अछूतों को समाज में ऊंचा स्थान दिलाएगा।
डॉक्टर भीमराव अंबेडकर प्रारंभ मे मुस्लिम लीग की सहायता से संविधान सभा के लिए बंगाल जैसुर कुलना सीट से निर्वाचित हुए थे लेकिन उनका निर्वाचन क्षेत्र देश विभाजन के पश्चात पाकिस्तान में चले जाने के कारण कांग्रेस के सहायता से संविधान सभा के लिए मुंबई से निर्वाचित हुए थे उनके लिए एम आर जयकर ने अपना पद रिक्त किया था...
जब भीमराव अंबेडकर अमेरिका में पीएचडी करने गए थे तब वहां पर महान अर्थशास्त्री किन्स के साथ भारतीय मुद्रा को लेकर इनका विवाद हुआ था और उन्हीं को जवाब देने के लिए इन्होंने द प्रॉब्लम ऑफ रुपी नामक पुस्तक भी लिखी थी बाद में 1926 में जब हिल्टन यंग भारत आया था तब उन्होंने भारतीय के विचार जानने के लिए सदस्यों को आमंत्रित किया था तब उनके हाथ में भीमराव अंबेडकर की पुस्तक की कुछ प्रतियां थी बाद में हिल्टन यंग ने उन्हें की सिफारिश पर भारतीय मुद्रा की विनिमयन के लिए 1 अप्रैल 1935 को भारतीय रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया की स्थापना की जिसका मुख्यालय मुंबई में है...
विपरीत परिस्थितियों में जीवन की शुरुआत करते हुए भी अपना जीवन अध्ययन, लेखन, भाषण और जनकल्याण हेतु समर्पित करने वाले डॉ. भीमराव रामजी अम्बेडकर सदैव हम सभी के प्रेरणास्त्रोत रहे हैं। अपनी लगन और कर्मठता से उन्होंने एम.ए., पी एच. डी., एम. एस. सी., बार-एट-लॉ की डिग्रियाँ प्राप्त की। इस तरह से वे अपने समय के सबसे ज़्यादा पढ़े-लिखे राजनेता एवं विचारकों में से एक थे। जातिगत भेदभाव से पीड़ितों के प्रति उनकी गहरी सहानुभूति थी। पीड़ितों के साथ जो भेदभाव किए जाते थे, उनसे व्यथित होकर इन भेदभावों को दूर कर, पीड़ितों को समाज में सशक्त बनाने के लिए डॉ. अम्बेडकर जी ने व्यापक जन आन्दोलन किए।
डॉ. अम्बेडकर जी गांवों की अपेक्षा नगरों में तथा ग्रामीण शिल्पों या कृषिगत व्यवस्था की तुलना में पश्चिमी समाज की तरह औद्योगिक विकास में भारत और दलितों का भविष्य देखते थे। वे मार्क्सवादी समाजवाद की तुलना में बौद्ध मानववाद के समर्थक थे, जिसके केन्द्र में व्यक्तिगत स्वतंत्रता, समानता एवं भ्रातृत्व की भावना है।
अम्बेडकर जी संविधान के निर्धारण की सम्पूर्ण प्रक्रिया में अग्रिम पंक्ति में उपस्थित रहे। उन्होंने संविधान सभा के प्रस्तावों में महत्त्वपूर्ण बदलाव हेतु सुझाव दिए, चर्चा सत्रों में अंत तक उनके लिए लड़ाई लड़ते रहे। साथ ही, समय-समय पर इसमें सफलता न मिलने के बावजूद भी वे लगातार अगले प्रस्तावों पर पूरी तल्लीनता से बहस करते रहे। इस प्रकार अम्बेडकर जी ने भारत के संविधान की रचना में एक निर्णायक भूमिका अदा की है। इन्हीं महत्त्वपूर्ण उपलब्धियों तथा देश की अमूल्य सेवा के फलस्वरूप 1990 में अम्बेडकर जी को भारत के सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार “भारत रत्न” से सम्मानित किया गया।
ऐसे भारतीय विधि विशेषज्ञ, अर्थशास्त्री, इतिहास विवेचक, बौद्ध दर्शन के विद्वान् तथा श्रमिकों, किसानों और महिलाओं के अधिकारों के समर्थक अम्बेडकर जी सदैव सामाजिक समरसता हेतु प्रयासरत रहे। स्वतंत्र भारत के प्रथम विधि एवं न्याय मंत्री, भारतीय संविधान के जनक एवं भारत गणराज्य के निर्माताओं में से एक बाबासाहेब डॉ. भीमराव अम्बेडकर को नमन।
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