राणा कुंभा का जीवन परिचय युद्ध और उपाधियां
🔸🔸राणा कुंभा (1433-1468 ई.)
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कुभा महाराणा मोकल एवं सौभाग्यदेवी का ज्येष्ठ पुत्र था जो 1433 ई. में मेवाड़ का शासक बना।
उस समय के साहित्यक ग्रन्थों-गीतगोविन्द टीका और प्रशस्तियों जैसे कुम्भलगढ़ प्रशस्ति में महाराणा को महाराजाधिराज, रावराय, राणेराय, चापगुरु, राय रायन, राणो रासो (साहित्यकारों का आश्रयदाता), राजगुरु (राजनीतिक सिद्धान्तों में दक्षता), दानगुरु (महादानी), हालगुरु (पहाड़ी दुर्गों का स्वामी), परमगुरु (समय का सर्वोच्च शासक), छापगुरु (छापामार में पारगंत), नरपति, अश्वपति, गजपति (विशाल सेना का स्वामी) आदि उपाधियां प्रदान की।
🔸 राणा कुंभा राजपूताना सभी शासकों में सर्वोपरि इसलिए उसे 'हिन्दू सुरताण' तथा संगीत प्रेमी होने के कारण 'अभिनव भारताचार्य' व 'वीणावादन प्रवीणेन' कहा जाता है।
🔸कुम्भलगढ़ शिलालेख में उसे “धर्म और पवित्रता का अवतार' तथा दानी राजा भोज व कर्ण से बढ़कर बताया गया है।
वह निष्ठावान वैष्णव था और यशस्वी गुप्त सम्राटों के समान स्वयं को 'परमभागवत्' कहा करता था। उसने आदिवाराह की उपाधि भी अंगीकार की थी : 'वसुंधरोद्धरणादिवराहेण' (विष्णु के प्राथमिक अवतार वाराह के समान वैदिक व्यवस्था का पुनर्संस्थापक)।
*** महाराणा की प्रारंभिक कठिनाइयाँ और उनका अन्त : राणा कुंभा के सौतेले काका 'चाचा' और 'मेरा' इतने शक्त्यान्ध हो गये कि एक समय जब मोकल ने इनसे जंगल में प्रसंगवश किसी वृक्ष का नाम पूछ लिया तो ये इसे ताना समझ गये, क्योंकि इनकी माता खातिन इस अपमान का बदला लेने के लिए उन्होंने मोकल को मार दिया। महाराणा कुंभा ने गुप्त रीति से भीलों को अपनी और संगठित किया। कुम्भा द्वारा रणमल व राघनदेव के नेतृत्व में भेजी सेना ने विद्रोहियों का दमन किया।
मारवाड़ी ख्यातों के अनुसार
रणमल राठौड़ ने चाचा और मेरा की हत्या की। कीर्तिस्तम्भ प्रशस्ति के अनुसार चाचा व मेरा की राणा कुंभा ने हत्या की तथा उसके बाद चाचा के पुत्र एक्का व महपा पंवार का साहस मेवाड़ में रहने का न हो सका और वे मांडू के सुल्तान की शरण में चले गये।
राठौड़ रणमल के पुत्र जोधा ने अपनी पुत्री श्रृंगारदेवी का विवाह महाराणा कुम्भा के पुत्र रायमल के साथ कर बैर को समाप्त कर दिया।
बूँदी के शासक मेवाड़ के सामन्त थे जिन्हें नियंत्रण में रखा। कुंभा ने पाई पहाड़ी भागों के भीलों को अपनी ओर मिला लिया। राणा कुंभा का मालवा एवं गुजरात के सुल्तानों के साथ लम्बा संघर्ष चला जिसकी शुरुआत महाराणा क्षेत्रसिंह के समय में हुई थी।
रणकपुर के शिलालेख के महाराणा कुम्भा ने सारंगपुर, नागौर, गागरोन, नरायना, अजयमेरु, मण्डोर, मांडलगढ़, बूंदी एवं
-आबू पर अधिकार कर राज्य का विस्तार किया।
🔸सारंगपुर का युद्ध (1437 ई.) : सारंगपुर का युद्ध 1437 ई. में मेवाड़ के महाराणा कुंभा एवं मालवा (मांडू) के सुल्तान महमूद खिलजी के बीच हुआ, जिसमें कुंभा की विजय हुई।
ये दोनों ही राज्य पड़ोसी थे और राज्य विस्तार के इच्छुक थे। मालवा के सुल्तान ने मेवाड़ के शत्रु महपा पँवार को आश्रय प्रदान किया। कुंभा ने महपा पँवार को मेवाड़ को सौंपने के लिए पत्र लिखा। लेकिन महमूद खिलजी ने शरणागत को लौटाना स्वीकार नहीं किया। अतः दोनों के बीच युद्ध हुआ जिसमें महमूद खिलजी की पराजय हुई। कुम्भलगढ़ प्रशस्ति के अनुसार सारंगपुर के युद्ध में मालवा का सुल्तान परास्त होकर बंदी बनाया गया। जिसे छः महीने तक कैद में रखने के बाद कुभा ने पारितोषिक देकर स्वतंत्र कर दिया।
अबुल फजल एवं नैणसी ने महमूद खिलजी को बंदी बनाकर मुक्त करने का उल्लेख किया ।
🔸🔸इस विजय की स्मृति में कुंभा ने अपने आराध्यदेव विष्णु के निमित्त चित्तौड़गढ़ में विजय स्तम्भ (कीर्तिस्तम्भ) का निर्माण 1440-1448 ई.) करवाया।
विजय स्तम्भ के स्थापत्यकार जैता, नापा और पूंजा थे तथा कीर्ति स्तम्भ प्रशस्ति का प्रशस्तिकार कवि अत्रि इस विजय स्तम्भ को 'भारतीय मूर्तिकला का विश्वकोष' कहा गया है।
दूसरी ओर महमूदशाह भी अपनी विजय की बात करता है। उसने भी इस विजय के उपलक्ष में माण्डू में सात मंजिला मीनार बनवाई। कर्नल टॉड ने महाराणा द्वारा महमूद को छोड़ देना तथा उसके
राज्य को लौटा देना राजनीतिक अदूरदर्शिता बतायी है।
डॉ. शर्मा के अनुसार महाराणा की यह नीति उसकी उदारता और स्वाभिमान तथा दूरदर्शिता की परिचायक है।
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