हशमत वाला राजा राव मालदेव
राजस्थान का पश्चिमोत्तर भाग प्राचीन काल में मरू प्रदेश कहलाता था जो कालांतर में मारवाड़ का कहलाया यहां पर प्रारंभ में गुर्जर प्रतिहार वंश तत्पश्चात राठौड़ वंश का शासन था जो राजस्थान के निर्माण तक रहा! नैंणसी के अनुसार मोहम्मद गोैरी ने 1194 के चंदावर के युद्ध में कन्नौज के जयचन्द गहड़वाल को समाप्त कर दिया तब कुछ वर्षों के बाद जयचंद के पुत्र सीहा ने पाली के आसपास 13 वी सदी में मारवाड़ के राठौड़ वंश की स्थापना इस मत का समर्थन जोधपुर राज्य की ख्यात, पृथ्वीराज रासो, कर्नल जेम्स टॉड,दयालदास री ख्यात करते हैंदूसरे मत के अनुसार जोधपुर के राठौड़ बदायूं की शाखा से दे है न की कन्नौज की शाखा से यह मत सबसे पहले डॉक्टर हार्नली ने प्रतिपादित किया जिसका समर्थन डॉक्टर ओझा ने किया गौरीशंकर हीराचंद ओझा के अनुसार कन्नौज के गहड़वाल व एक अलग जाति है जो सूर्यवंशी है और बदायूं के राठौड़ इसके विपरीत चंद्रवंशी है संभवत राजपूताना के वर्तमान राठौड़ बदायूं के राठौड़ों के वंशज हैं सम्राट अशोक के समय से लेकर आज तक हमें इस वंश के संबंध में जानकारी और से प्राप्त होती है यह भी निर्विवाद है कि राष्ट्रकूटो का प्रतापी राज्य सर्वप्रथम दक्षिण में था दक्षिण के राष्ट्रकूटो की वंशावली दंतीवर्मा से आरंभ होती है जो छठी शताब्दी में प्रतापी शासक था इनके ऊपर की 3 शाखाओं के राठौड़ दक्षिण के राठौड़ के ही वंशज हो सकते हैं हस्तीकुंड के राठौड़ गोडवाड़ इलाके की में राज्य करते थे डॉ रमाशंकर त्रिपाठी हेमचंद्र राय ने गहड़वालो और राठौड़ों के वंशो को भिन्न बताया इन बातों पर विचार करने से तो हम इसी निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि वस्तुत: गहड़वाल और राठौड़ दो भिन्न-भिन्न जातियां हैं इसमें परस्पर किसी भी प्रकार की समानता नहीं है पंडित रेऊ मारवाड़ के राठौड़ों को कन्नौज की शाखा से मानते हैं और इन्हें जयचंद के वंशज बताते हैं डॉक्टर माथुर का एक नया मत है कि बदायूं के राष्ट्रकूट कन्नौज से बदायू गए और दक्षिण राष्ट्रकूटो ठका 1200 ईस्वी के लगभग कन्नौज पर शासन रहा कन्नौज के राठौड़ों की एक शाखा बदायूं गई वह दूसरी शाखा मारवाड़ आई जयचंद मारवाड़ के राठौड़ों का आदि पुरुष था राठौड़ और गहड़वाल के वंश में साम्यता रही है जोधपुर के राठौड़ों का मूल पुरुष सीहा था जो बदायूं के राठौड़ों का या कन्नौज के गहढ़वाल वंश के से संबंधित कोई व्यक्ति था बिठू गांव पाली के देवल अभिलेख के अनुसार राव सीहा कुवंर सेतराम का पुत्र था और उसकी सोलंकी वंश की पार्वती नामक रानी थी उसी वंश में एक राजा राव मालदेव हुआ जिसे हशमत वाला राजा भी कहा जाता है
राव मालदेव राव मालदेव अपने पिता राव गांगा की मृत्यु के बाद 5 जून 1532 को जोधपुर की गद्दी पर बैठा उसका राज्याभिषेक सोजत में संपन्न हुआ राव मालदेव गांगा का जेष्ठ पुत्र था जिस समय उसने मारवाड़ के राज्य की बागडोर अपने हाथ में ली उस समय उसका अधिकार सोजत और जोधपुर के परगनों ऊपर ही था उस समय दिल्ली पर मुगल बादशाह हुमायूं का शासन था राव मालदेव राठौड़ वंश का प्रसिद्ध शासक हुआ सबसे पहले जब 15 32 ईस्वी में गुजरात के सुल्तान बहादुर शाह ने मेवाड़ पर चढ़ाई थी उसमें मालदेव ने अपने सेना भेजकर विक्रमादित्य की सहायता की थी ख्यातो के अनुसार मालदेव ने कुंभलगढ़ में आकर टिके हुए उदय सिंह को राणा घोषित करने तथा बनवीर के विरुद्ध लड़ने में अपना योगदान दिया था जोधपुर राज्य की ख्यात में लिखा गया है कि 1532 ईस्वी में राव मालदेव ने राठौड़ जेैता, कूँपा आदि सरदारों को मेवाड़ के उदयसिंह की सहायतार्थ भेजा था जिसके फलस्वरूप बनवीर को निकाला गया था और उदय सिंह को चित्तौड़ के सिहासन पर बैठाया इसके बदले में महाराणा ने बसंतराय नामक एक हाथी और चार लाख फिरोजे ए पेशकशी के मालदेव के पास भेजें यहां यह तथ्य उल्लेखित करना प्रासंगिक होगा कि खानवा का युद्ध महाराणा सांगा और बाबर के मध्य हुआ तो राव गांगा ने अपने पुत्र राव मालदेव के नेतृत्व में 4000 सैनिक भेजकर राणा सांगा की मदद की थी रूठी रानी - 1536 ईस्वी में मालदेव का विवाह जैसलमेर के लूणकरण की कन्या उम्मा दे से हुआ किसी कारणवश लूणकरण ने मालदेव को मारने का इरादा किया तो लूणकरण की रानी ने पुरोहित राघवदेव द्वारा यह सूचना मालदेव को भिजवा दी संभवत इसी कारण से मालदेव अप्रसन्न हो गया और मालदेव भी रूठ गई तभी से वह रूठी रानी कहलाई तथा उसे अजमेर के तारागढ़ में रखा गया जब शेरशाह ने अजमेर पर आक्रमण किया और शंका हुई तो ईश्वर दास के माध्यम से से जोधपुर जाने को राजी किया गया परंतु जोधपुर रानियों के रूखे व्यवहार की जानकारी मिलने के कारण वह गूँरोज चली गई जब मालदेव का देहांत हुआ तो वे उस पर सती हुई भाद्राजून पर अधिकार सर्वप्रथम उसने भाद्राजून के शीधंल स्वामी वीरा पर चढ़ाई कर दी उस समय मेड़ते के स्वामी वीरमदेव ने भी उसकी सेना के साथ आकर उस में योगदान दिया कई दिनों के युद्ध के बाद वीरा मारा गया और वहां मालदेव का अधिकार हो गया इसके अलावा रायपुर पर भी मालदेव का अधिकार हो गया मालदेव की नागौर विजय - मालदेव के संबंध मेड़ता के राव वीरम से बिगड़ चुके थे वीरम को मेड़ता से निकाल दिया गया और अजमेर से भी निकाल दिया गया जब उसे कोई सफलता नहीं मिली तो वह मलारने के मुसलमान थानेदार से मिला और उसकी सहायता से रणथंम्भौर के हाकीम के पास गया जो उसे शेरशाह सूरी के पास ले गया साहिबा/ पहोबा का युद्ध 1542- मालदेव ने 1542 ईस्वी के आसपास राज्य विस्तार की इच्छा से कुँपा की अध्यक्षता में एक बड़ी सेना बीकानेर की तरफ भेजी राव जैतसी मुकाबला करने के लिए साहिबा के मैदान में पहुंच गया मालदेव की शक्तिशाली सेना के सामने वह और अनेक सेनानायकों के साथ खेत हो गया मालदेव ने जांगल प्रदेश पर अपना अधिकार स्थापित कर लिया राव मालदेव और हुमायूँ :- शेरशाह सूरी के हारने के बाद हुमायूँ सिन्ध की ओर भागा 1541 ईस्वी के प्रारंभ में भक्कड़ पहुंचा मालदेव ने इसी समय हुमायूं के पास यह सन्देश भेजा कि वह उसे सहायता देने के लिए तैयार है इस संदेश में सूझबूझ थी क्योंकि शेर शाह की अनुपस्थिति में मालदेव सीधा दिल्ली में आगरा की ओर ध्यान कर सकता था हुमायूँ के नाम से अपने समर्थकों की संख्या बढ़ा सकता था परंतु हुमायूँ ने इस सुझाव पर कोई ध्यान ना दिया क्योंकि उसे थटटा के शासक शाहहुसैन की सहायता से गुजरात विजय की आशाा थी सात माह के के घेरे में अपनी शक्ति का अपव्य करता रहा अब हुसैन व यादगार मिर्जा उसके विरोधी बन चुके थे इस निराशा के वातावरण में हुमायूं ने लगभग 1 वर्ष बाद मारवाड़ की ओर जाने का विचार किया और 7 मई 1542 को मायूस जोगी तीर्थ पहुंचा जोगी तीर्थ पहुंचने पर मालदेव द्वारा भेजी गई अशरफिया तथा रसद से हुमायूँ का स्वागत किया गया उस समय यह भी स्वांद उसके पास भेजा गया कि मालदेव हर प्रकार से बादशाह की सहायता के लिए उद्धत है और उसे बीकानेर का परगणा सुपुर्द करने को तैयार है इतना सब होते हुए भी हुमायूँ के साथी मालदेव से शंकित थे इस संबंध में विशेष जानकारी प्राप्त करने के लिए मीर समंदर, रायमल सोनी ,अकता खाँ आदि व्यक्तियों को मालदेव के पास बारी-बारी भेजा गया सभी का लगभग यही मत था कि मालदेव ऊपर से मीठी-मीठी बातें करता है परंतु उसका हृदय साफ नहीं है इस पर उन्होंने तुरंत अमरकोट की ओर प्रस्थान किया लौटते समय बादशाह के दल का मालदेव की सेना ने पीछा किया जिससे भयभीत होकर हुमायूँ मारवाड़ से भाग निकला गिरी सुमेल का युद्ध जनवरी 1544 ईस्वी में बीकानेर के मंत्री नागराज ने मालदेव के विरुद्ध शेरशाह को सहायता देने के लिए चलने की प्रार्थना की थी मेड़़ता के स्वामी विरम ने भी शेरशाह से सहायता की प्रार्थना की थी शेरशाह ने चाल चली! नैंणसी लिखता है कि मेड़ता के वीरम ने 20 हजार रुपये मालदेव के सेनानायक कुँपा के पास भिजवा कर कहलाया कि वह उसके लिए कंबल खरीदे ले इसी तरह उसने जैता नामक उसी के सहयोगी के पास भी ₹20000 भिजवा कर यह करवाया कि वह उसके लिए सिरोही से तलवार खरीदे इसी के साथ साथ उसने मालदेव को यह सूचना भिजवाई कि उसके सेनानायक ने घूस लेकर शत्रु की सेना के साथ मिलने का निश्चय किया है जब इसकी जांच की गई तो जेैता व कुँपा के डेरे में रुपए मिले इस घटना से मालदेव को धोखे का निश्चय हो गया और वे युद्ध स्थल को छोड़कर सुरक्षा के प्रबंध में लग गया रेउ के अनुसार वीरम ने शेरशाह के जाली फरमानों को ढालूं में सी कर गुप्त सूत्रों के माध्यम से मालदेव के सरदारों को बिकवा दिया उसने मालदेव को भी यह सूचना भिजवाई की युद्ध के समय उसके सरदार धोखा देंगे यदि इसमें कोई संदेह है तो वह उसकी ढालो में छिपे हुए फरमानों को देखा जाए जब इसकी जांच की गई तो फरमान ढालो में पाए गए इससे मालदेव का अपने सरदारों पर से विश्वास उठ गया और किसी तरह जब यह पत्र मालदेव को मिला तो उसने युद्ध निरर्थक समझा इस मतभेद से मालदेव ने लगभग आधे सैनिकों को अपने साथ ले लिया और लगभग आधी सेना जेै,ता कुंपा के साथ रहकर स्वेच्छा से युद्ध में मुकाबला करने के लिए डटी रही जैतारण के निकट गिरी सुमेल नामक स्थान पर जनवरी 1544 में दोनों सेनाओं के मध्य युद्व शुरू हुआ शेरशाह की बड़ी कठिनाई से जीत हुई तब उसने कहा कि एक मुट्ठी भर बाजरे के लिए हिंदुस्तान की बादशाहत खो देता यहां यह तथ्य उलेखित करना प्रासंगिक होगा कि मालदेव के सबसे विश्वस्त वीर सेनानायक जैता व कुँपा इस युद्ध में मारे गए इसके बाद उसके जोधपुर के दुर्ग पर आक्रमण कर अधिकार लिया और वहां का प्रबंध खवास खाँ को संभाल दिया अब्बास खान शेरवानी की तारीख ए फिरोजशाही के अनुसार इस विजय के बाद शेरशाह ने अपनी सेना के दो भाग कर दिए एक खवास खाँ के नेतृत्व में जोधपुर की ओर गया और व दूसरे भाग को लेकर शेरशाह अजमेर पहुंचा उसने अजमेर को आसानी से अपने अधिकार में कर लिया मालदेव ने जब देखा कि शत्रु ने जोधपुर को चारों ओर से घेर लिया है तो वह सिवाना के पर्वतीय भाग में चला गया थोड़ी सी लड़ाई के बाद जोधपुर शत्रुओं के हाथ में आ गया वीरम को मेड़ता व कल्याणमल को बीकानेर सौप दिया फिर अपनी राजधानी लौट गया जब शेरशाह की मृत्यु हो गई तो सिवाना के पहाड़ों से मालदेव ने अपने आक्रमण करके अफगानों के विरुद्ध युद्ध प्रारंभ कर दिया 1545 ईस्वी में जोधपुर पर उन्होंने पुन: अधिकार कर दिया गिरि सुमेल की लड़ाई का महत्व:- गिरि सुमेल का युद्ध के बाद राजपूतों के वैभव और स्वतंत्रता का अध्याय समाप्त हो गया जिसके पात्र पृथ्वीराज चौहान ,हम्मीर देव चौहान ,महाराणा कुंभा ,महाराणा सांगा ,मालदेव थे! यहां से आश्रितों का एक इतिहास प्रारंभ होता है जिसके पात्र वीरम, कल्याणमल ,मानसिंह, मिर्जा राजा जयसिंह ,अजीत सिंह आदि थे मालदेव के अंतिम वर्ष मालदेव ने अपने राज्यत्व काल से अंत तक अपना जीवन युद्धमय रखा जिससे उनकी फलौदी शक्ति धीरे-धीरे क्षीण होती मारवाड़ में मेड़ता और जैतारण पर मुगलों का अधिकार हो गया 1562 ईस्वी में उसकी मृत्यु से यह क्रम राजस्थान में बड़ी तेजी से बढा! राजस्थान में अनेक प्रतापी राजा महाराजा हुए लेकिन इन शासकों में राव मालदेव ने अपने जीवन काल में कुल 52 युद्ध लड़े और अपने आसपास के 58 परगनों पर जीत दर्ज की इतना विशाल साम्राज्य न तो मालदेव के पूर्व शासकों के पास था न हीं मालदेव के बाद के शासकों के पास! फारसी इतिहासकारों ने मालदेव को हिंदुस्तान का सर्वाधिक शक्तिशाली राजा बत्ताया और उसे हशमत वाला राजा बताया!
राव मालदेव द्वारा निर्माण:- जोधपुर के गढ़ के कोट के साथ उसने रानीसर कोट, शहरपनाह बनाया नागौर गढ़ का भी जीर्णौद्धार उसके समय में हुआ था सातलमेर ,पोकरण, मालकोट ,सोजत, रायपुर ,गुंदोज, भाद्राजून ,रिया ,सिवाना ,पीपाड़ा ,नाडोैल ,कुण्डल, फलोैदी, दुनाडा़ आदि कस्बों के चारो ओर कोट बनाकर उसे सुदृढ़ किया उसने अजमेर के तारागढ़ के पास नूर चश्मे की तरफ के बूर्ज और कोट को बनवाया तथा पेैर से चलने वाले रहट से पानी ऊपर चढ़ाने की व्यवस्था की उसने तारागढ़ के दुर्ग में पानी की कमी को दूर किया यहां यह तथ्य उल्लेखित करना प्रासंगिक होगा कि राव मालदेव ने अपनी दूसरी रानी के प्रभाव में आकर अपने सुयोग्य ज्येष्ठ लड़के राम की बजाय चंद्रसेन को अपना उत्तराधिकारी बनाया यहां यह तथ्य उल्लेखित करना प्रासंगिक होगा कि भारत की आजादी के समय जोधपुर के महाराजा हनुवंत सिंह पाकिस्तान के संस्थापक मोहम्मद अली जिन्ना के साथ मिलकर पाकिस्तान मैं अपनी रियासत मिलाना चाहते थे लेकिन वीपी मैनन, लॉर्ड माउंटबेटन, सरदार वल्लभभाई पटेल के समझाने से महाराजा हनुवंत सिंह बड़ी मुश्किल से भारतीय संघ में मिलने को तैयार हुए इस प्रकार जोधपुर रियासत 30 मार्च 1949 को भारत संघ में सम्मिलित हो गई more post_ http://politicalrajasthan.blogspot.com/2022/09/blog-post_14.html
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