भारत परिषद् अधिनियम1909 Indian Councils Act, 1909मार्ले-मिंटो सुधार" Morley-Minto Reforms
भारत परिषद् अधिनियम, 1909 (Indian Councils Act, 1909), जिसे "मार्ले-मिंटो सुधार" (Morley-Minto Reforms) के नाम से जाना जाता है, ब्रिटिश शासन के दौरान भारत में संवैधानिक सुधारों की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम था। इस अधिनियम का मुख्य उद्देश्य भारतीयों को प्रशासन में सीमित भागीदारी देना था, जिससे वे ब्रिटिश सरकार के प्रति सहानुभूति रख सकें और बढ़ते राजनीतिक असंतोष को नियंत्रित किया जा सके। हालाँकि, इसमें भारतीयों को निर्णय लेने की वास्तविक शक्ति नहीं दी गई, बल्कि केवल परामर्शात्मक भूमिका तक सीमित रखा गया।
यह अधिनियम तत्कालीन वायसराय लॉर्ड मिंटो और ब्रिटेन के भारत सचिव जॉन मार्ले द्वारा प्रस्तावित सुधारों का परिणाम था। इसके तहत केंद्रीय और प्रांतीय विधान परिषदों में भारतीयों की भागीदारी बढ़ाने का प्रावधान किया गया, लेकिन इसका स्वरूप ऐसा था कि प्रशासनिक नियंत्रण ब्रिटिश सरकार के हाथों में ही बना रहा। इस अधिनियम के जरिए मुसलमानों के लिए पृथक निर्वाचक मंडल (Separate Electorates) की शुरुआत की गई, जिससे वे केवल अपने समुदाय के प्रतिनिधियों को चुन सकें। यह प्रावधान भविष्य में भारतीय राजनीति में सांप्रदायिक आधार पर विभाजन की नींव रखने वाला साबित हुआ।
मार्ले-मिंटो ब्रिटिश सरकार के दो प्रमुख नेता थे जिन्होंने 1909 में भारत में संवैधानिक सुधारों की घोषणा की थी।
_जॉन मार्ले_
जॉन मार्ले ब्रिटिश सरकार के एक प्रमुख नेता थे जिन्होंने 1905 से 1910 तक ब्रिटेन के प्रधानमंत्री के रूप में कार्य किया था। वह एक उदारवादी नेता थे जिन्होंने भारत में संवैधानिक सुधारों की आवश्यकता को महसूस किया था।
_गिल्बर्ट एलियट-मुरे-किन्नियर, अर्ल ऑफ मिंटो_
गिल्बर्ट एलियट-मुरे-किन्नियर, अर्ल ऑफ मिंटो ब्रिटिश सरकार के एक प्रमुख नेता थे जिन्होंने 1905 से 1910 तक भारत के वाइसराय के रूप में कार्य किया था। वह एक अनुभवी प्रशासक थे जिन्होंने भारत में संवैधानिक सुधारों की आवश्यकता को महसूस किया था।
मार्ले और मिंटो ने मिलकर 1909 में भारत में संवैधानिक सुधारों की घोषणा की थी, जिसे मार्ले-मिंटो सुधार के नाम से जाना जाता है। इन सुधारों का उद्देश्य भारतीयों को अधिक राजनीतिक अधिकार और प्रतिनिधित्व प्रदान करना था।
कुल मिलाकर, 1909 का यह अधिनियम ब्रिटिश सरकार द्वारा भारतीयों को राजनीतिक सुधारों का आभास देने का एक प्रयास था, लेकिन इससे भारतीयों की प्रशासन में वास्तविक भागीदारी सुनिश्चित नहीं हुई। इसके बावजूद, यह अधिनियम भारत में संवैधानिक विकास की एक महत्वपूर्ण कड़ी बना, जिसने आगे चलकर 1919 और 1935 के अधिनियमों का मार्ग प्रशस्त किया।
मार्ले-मिंटो सुधार 1909 में भारत में ब्रिटिश सरकार द्वारा किए गए संवैधानिक सुधार थे। इन सुधारों का उद्देश्य भारतीयों को अधिक राजनीतिक अधिकार और प्रतिनिधित्व प्रदान करना था।
मार्ले-मिंटो सुधारों की मुख्य विशेषताएं निम्नलिखित थीं:
1. _विधान परिषदों का विस्तार_: मार्ले-मिंटो सुधारों के तहत, विधान परिषदों का विस्तार किया गया और इनमें अधिक सदस्यों को शामिल किया गया।
2. _निर्वाचित सदस्यों की संख्या में वृद्धि_: मार्ले-मिंटो सुधारों के तहत, निर्वाचित सदस्यों की संख्या में वृद्धि की गई।
3. _मुसलमानों के लिए अलग निर्वाचन_: मार्ले-मिंटो सुधारों के तहत, मुसलमानों के लिए अलग निर्वाचन की व्यवस्था की गई।
4. _भारतीयों को अधिक प्रशासनिक पद_: मार्ले-मिंटो सुधारों के तहत, भारतीयों को अधिक प्रशासनिक पद दिए गए।
5. _केंद्रीय विधान परिषद की स्थापना_: मार्ले-मिंटो सुधारों के तहत, केंद्रीय विधान परिषद की स्थापना की गई।
मार्ले-मिंटो सुधारों का महत्व निम्नलिखित है:
1. _भारतीयों को अधिक राजनीतिक अधिकार_: मार्ले-मिंटो सुधारों ने भारतीयों को अधिक राजनीतिक अधिकार प्रदान किए।
2. _भारतीय राष्ट्रवाद को बढ़ावा_: मार्ले-मिंटो सुधारों ने भारतीय राष्ट्रवाद को बढ़ावा दिया।
3. _भारतीय संविधान के विकास में महत्वपूर्ण कदम_: मार्ले-मिंटो सुधारों ने भारतीय संविधान के विकास में एक महत्वपूर्ण कदम उठाया।
हालांकि, मार्ले-मिंटो सुधारों की भी कुछ सीमाएं और कमियां थीं, जैसे कि:
1. _मुसलमानों के लिए अलग निर्वाचन_: मार्ले-मिंटो सुधारों के तहत, मुसलमानों के लिए अलग निर्वाचन की व्यवस्था की गई, जिसे कई लोगों ने भारतीय समाज को विभाजित करने के प्रयास के रूप में देखा।
2. _भारतीयों को अधिक प्रशासनिक पद नहीं दिए गए_: मार्ले-मिंटो सुधारों के तहत, भारतीयों को अधिक प्रशासनिक पद नहीं दिए गए, जिससे भारतीयों में असंतोष फैल गया।
3. _सुधारों की सीमाएं_: मार्ले-मिंटो सुधारों की सीमाएं थीं, जैसे कि ये सुधार केवल कुछ चुनिंदा भारतीयों के लिए थे, न कि सभी भारतीयों के लिए।
मुख्य प्रावधान (Main Provisions):
1. विधान परिषदों का विस्तार (Expansion of Legislative Councils):
भारत परिषद अधिनियम, 1909 के तहत केंद्रीय एवं प्रांतीय विधान परिषदों में महत्वपूर्ण विस्तार किया गया ताकि प्रशासनिक कार्यों में अधिक लोगों को सम्मिलित किया जा सके और विभिन्न समुदायों की राजनीतिक भागीदारी को बढ़ावा दिया जा सके।
A. केंद्रीय विधान परिषद में वृद्धि (Increase in the Central Legislative Council):
इस अधिनियम के लागू होने से पहले केंद्रीय विधान परिषद में केवल 16 सदस्य हुआ करते थे, लेकिन इसे बढ़ाकर 60 कर दिया गया। इससे परिषद में अधिक प्रतिनिधियों को शामिल करने की गुंजाइश बनी, जिससे प्रशासनिक चर्चाओं को व्यापक बनाने का अवसर मिला। हालांकि, इन सदस्यों को महत्वपूर्ण निर्णय लेने की स्वतंत्रता नहीं दी गई थी, बल्कि उनकी भूमिका केवल परामर्श देने तक सीमित थी।
B. प्रांतीय विधान परिषदों में वृद्धि. (Increase in Provincial Legislative Councils) :
प्रांतीय स्तर पर भी विधान परिषदों के आकार को बढ़ाया गया। विभिन्न बड़े प्रांतों जैसे बंगाल, मद्रास, बंबई और संयुक्त प्रांतों में सदस्यों की संख्या बढ़ाकर 50 तक कर दी गई, जबकि छोटे प्रांतों में यह संख्या अपेक्षाकृत कम थी। इस विस्तार का उद्देश्य प्रांतीय प्रशासन में अधिक विविधता लाना और विभिन्न क्षेत्रों के प्रतिनिधियों को शामिल करना था।
C.परिषदों में भारतीयों की भागीदारी (Participation of Indians in the Councils):
हालांकि विधान परिषदों का आकार बढ़ाया गया, लेकिन भारतीयों को अभी भी सीमित अधिकार दिए गए। वे पूर्ण रूप से स्वतंत्र नहीं थे और केवल ब्रिटिश सरकार के नियंत्रण में रहकर कार्य कर सकते थे। इसके बावजूद, यह पहला अवसर था जब भारतीयों को प्रशासन में अधिक भागीदारी करने का अवसर मिला, जिससे भारतीय राजनीति में जागरूकता बढ़ी और आगे के संवैधानिक सुधारों का मार्ग प्रशस्त हुआ।
इस विस्तार से प्रशासनिक चर्चाओं में विविधता आई, लेकिन यह व्यवस्था अभी भी ब्रिटिश अधिकारियों के नियंत्रण में थी, जिससे भारतीय नेताओं को अपने अधिकारों के लिए आगे संघर्ष जारी रखना पड़ा।
2. नामित और निर्वाचित सदस्य (Nominated and Elected Members):
भारत परिषद अधिनियम, 1909 के तहत पहली बार विधान परिषदों में चुनाव की प्रक्रिया को औपचारिक रूप से स्वीकार किया गया, जिससे भारतीयों को प्रशासनिक व्यवस्था में सीमित भागीदारी का अवसर मिला। हालांकि, यह चुनाव प्रक्रिया पूर्ण रूप से स्वतंत्र या लोकतांत्रिक नहीं थी, बल्कि इसे ब्रिटिश सरकार ने अपने नियंत्रण में रखा ताकि भारतीय जनता को केवल आंशिक प्रतिनिधित्व दिया जा सके।
नामित सदस्य (Nominated Members):
इस अधिनियम के तहत, कई सदस्य सीधे ब्रिटिश सरकार द्वारा नामित किए जाते थे। इनमें उच्च पदस्थ ब्रिटिश अधिकारी, रियासतों के प्रतिनिधि, और कुछ भारतीय प्रतिष्ठित व्यक्ति शामिल थे। सरकार की मंशा यह सुनिश्चित करने की थी कि विधान परिषद में ब्रिटिश हितों की रक्षा करने वाले लोग बहुमत में रहें। इससे ब्रिटिश प्रशासन के नियंत्रण को बनाए रखना आसान हो गया।
निर्वाचित सदस्य (Elected Members):
हालांकि इस अधिनियम ने पहली बार निर्वाचित सदस्यों को विधान परिषदों में स्थान दिया, लेकिन यह प्रक्रिया पूरी तरह से स्वतंत्र नहीं थी। चुनाव अप्रत्यक्ष रूप से सीमित मताधिकार के आधार पर होता था, जिसका अर्थ यह था कि केवल कुछ विशेष योग्यताओं को पूरा करने वाले व्यक्ति ही मत डाल सकते थे। इन योग्यताओं में उच्च शिक्षा, संपत्ति का स्वामित्व, और कर भुगतान जैसी शर्तें शामिल थीं, जिससे आम भारतीय जनता चुनाव प्रक्रिया से बाहर रह गई।
निर्वाचन प्रक्रिया और इसकी सीमाएँ (Election Process and Its Limitations):
चुनाव में भाग लेने वाले अधिकतर मतदाता ज़मींदार, व्यापारी, उद्योगपति, और समाज के उच्च वर्ग के लोग होते थे। आम जनता को मतदान का अधिकार नहीं दिया गया, जिससे भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के नेताओं ने इसे एक अधूरी और भेदभावपूर्ण व्यवस्था बताया। निर्वाचित सदस्य प्रशासन पर कोई निर्णायक प्रभाव नहीं डाल सकते थे, क्योंकि अंतिम निर्णय लेने का अधिकार अभी भी ब्रिटिश सरकार के पास ही था।
प्रभाव और आगे की राह (Impact and the Way Forward):
हालांकि यह प्रणाली सीमित थी, लेकिन इसने भारतीयों को पहली बार चुनाव प्रक्रिया का अनुभव दिया। इससे राजनीतिक चेतना में वृद्धि हुई और भारतीय नेताओं ने आगे चलकर अधिक लोकतांत्रिक अधिकारों की माँग तेज़ कर दी। यही कारण था कि यह अधिनियम भविष्य के संवैधानिक सुधारों, विशेष रूप से 1919 और 1935 के अधिनियमों की दिशा में एक महत्वपूर्ण आधार बना।
3. अलग निर्वाचक मंडल की व्यवस्था (Provision of Separate Electorate):
भारत परिषद अधिनियम, 1909 की सबसे विवादास्पद विशेषता मुसलमानों के लिए पृथक निर्वाचक मंडल (Separate Electorates) की शुरुआत थी। इस प्रावधान के तहत मुस्लिम समुदाय को यह विशेष अधिकार दिया गया कि वे केवल अपने ही समुदाय के उम्मीदवारों को चुन सकते थे और गैर-मुसलमान उनके प्रतिनिधि बनने के योग्य नहीं थे। यह भारतीय राजनीति में सांप्रदायिक आधार पर विभाजन की दिशा में एक बड़ा कदम था, जिसने आगे चलकर गहरे राजनीतिक और सामाजिक प्रभाव डाले।
इस व्यवस्था की पृष्ठभूमि और उद्देश्य (Background and Objective of this System):
पृथक निर्वाचक मंडल की मांग 1906 में ढाका में हुई मुस्लिम लीग (Muslim League) की स्थापना के साथ ही उठने लगी थी। मुस्लिम नेताओं ने यह तर्क दिया कि उनके राजनीतिक, सांस्कृतिक और धार्मिक हित हिंदू बहुसंख्यक समुदाय से भिन्न हैं, इसलिए उन्हें अपने प्रतिनिधि स्वयं चुनने का अधिकार मिलना चाहिए। ब्रिटिश सरकार ने इस मांग को स्वीकार कर लिया क्योंकि इससे उन्हें भारतीय समाज में फूट डालने और अपने शासन को मजबूती देने का अवसर मिल गया।
प्रावधान और कार्यान्वयन (Provisions and Implementation):
मुस्लिम मतदाता केवल मुस्लिम उम्मीदवारों को ही चुन सकते थे। हिंदू या अन्य समुदायों को मुस्लिम निर्वाचक मंडल से प्रत्याशी बनने का अधिकार नहीं था। इस व्यवस्था को पूरे भारत में लागू किया गया, जिससे हिंदू-मुस्लिम एकता को गहरा आघात पहुँचा। ब्रिटिश सरकार ने इसे "अल्पसंख्यक संरक्षण" के रूप में प्रस्तुत किया, लेकिन वास्तव में यह "फूट डालो और राज करो" (Divide and Rule) नीति का ही हिस्सा था।
प्रभाव और दूरगामी परिणाम (Impact and long-term consequences):
1. भारतीय समाज में सांप्रदायिक विभाजन (Communal Division in Indian Society):
इस व्यवस्था से हिंदू और मुसलमानों के बीच एकता कमजोर हुई। राजनीतिक प्रतिस्पर्धा में सांप्रदायिक तत्व हावी होने लगे, जिससे राष्ट्रीय आंदोलन भी प्रभावित हुआ।
2. मुस्लिम लीग का सशक्तिकरण (Empowerment of the Muslim League):
मुस्लिम लीग, जिसने अलग निर्वाचक मंडल की मांग की थी, इस व्यवस्था के बाद और अधिक सक्रिय हो गई।
आगे चलकर इसी आधार पर मुस्लिम लीग ने अलग मुस्लिम राष्ट्र की मांग तेज कर दी, जो अंततः 1947 में भारत विभाजन का कारण बना।
3. सांप्रदायिक राजनीति की जड़ें मजबूत हुईं (The roots of communal politics became stronger):
इस व्यवस्था के कारण विभिन्न समुदायों ने अपने-अपने संकीर्ण हितों को प्राथमिकता देनी शुरू कर दी। भविष्य में अन्य समुदायों (जैसे सिख, ईसाई आदि) ने भी पृथक निर्वाचक मंडल की मांग करनी शुरू कर दी, जिससे भारतीय राजनीति में असमानता और जटिलता बढ़ी। अलग निर्वाचक मंडल की नीति भारत की राजनीतिक एकता के लिए एक बड़ा झटका साबित हुई। ब्रिटिश सरकार ने इसे "अल्पसंख्यकों की सुरक्षा" के रूप में प्रस्तुत किया, लेकिन वास्तविकता में यह उनकी सत्ता बनाए रखने की एक रणनीति थी। इस व्यवस्था ने भारत में सांप्रदायिक राजनीति को जन्म दिया, जो आगे चलकर देश के विभाजन का प्रमुख कारण बनी। हालांकि, 1947 के बाद स्वतंत्र भारत ने इस प्रणाली को समाप्त कर दिया और समान मताधिकार (Universal Suffrage) की व्यवस्था को अपनाया, जिससे सभी नागरिकों को समान राजनीतिक अधिकार मिले।
4. भारतीयों की भागीदारी (Participation of Indians):
भारत परिषद अधिनियम, 1909 के तहत भारतीयों को पहली बार केंद्रीय और प्रांतीय विधान परिषदों में सीमित भागीदारी का अवसर मिला। इस सुधार के माध्यम से ब्रिटिश सरकार ने यह दिखाने की कोशिश की कि वह भारतीयों को प्रशासन में शामिल करने के लिए तैयार है, लेकिन वास्तव में उनकी भूमिका नाममात्र की थी। भारतीय प्रतिनिधियों को महत्वपूर्ण निर्णय लेने की स्वतंत्रता नहीं थी, और ब्रिटिश अधिकारी ही वास्तविक सत्ता नियंत्रित करते रहे।
भारतीय नेताओं की भागीदारी (Participation of Indian Leaders):
इस अधिनियम के तहत गोपाल कृष्ण गोखले, जो एक प्रख्यात राष्ट्रवादी नेता और समाज सुधारक थे, केंद्रीय विधान परिषद के सदस्य बने। अन्य प्रमुख भारतीय नेता भी प्रांतीय विधान परिषदों में मनोनीत किए गए, लेकिन उनकी स्थिति परामर्शदात्री ही थी।भारतीय सदस्यों को प्रश्न पूछने और बहस में भाग लेने की अनुमति दी गई, लेकिन किसी भी नीतिगत या प्रशासनिक निर्णय पर उनका वास्तविक प्रभाव नगण्य था।
सीमित शक्तियाँ और अधिकार (Limited powers and rights):
हालांकि भारतीय सदस्यों की संख्या बढ़ाई गई, लेकिन उनकी शक्तियाँ बेहद सीमित थीं:
1. प्रश्न पूछने का अधिकार: भारतीय सदस्य सरकार से प्रश्न पूछ सकते थे, लेकिन उत्तर देने की बाध्यता नहीं थी।
2. बजट पर चर्चा: उन्हें बजट पर बहस करने का अवसर दिया गया, लेकिन वे इसे अस्वीकार या संशोधित नहीं कर सकते थे।
3. कानून निर्माण: भारतीयों को कानून बनाने में कोई निर्णायक भूमिका नहीं दी गई। अंतिम निर्णय हमेशा ब्रिटिश अधिकारियों के हाथ में होता था।
4. प्रशासनिक नियंत्रण: भारतीयों को कार्यकारी पदों पर नियुक्त नहीं किया गया, जिससे वे किसी भी सरकारी नीति को लागू करने में असमर्थ रहे।
भारतीय राष्ट्रवाद पर प्रभाव (Effect on Indian Nationalism):
भारतीय नेताओं ने इस अधिनियम को अधूरी और दिखावटी सुधार प्रक्रिया बताया। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने इसे स्वीकार करने के बजाय स्वराज (Self-rule) की मांग को और अधिक प्रबल किया। इस अधिनियम से यह स्पष्ट हो गया कि ब्रिटिश सरकार भारतीयों को केवल नाममात्र की भागीदारी देकर असली शक्ति अपने हाथ में रखना चाहती है। इससे भारतीय राजनीति में असंतोष बढ़ा और आगे चलकर 1919 के सुधारों की मांग को बल मिला।
1909 के अधिनियम ने भारतीयों को प्रशासन में सीमित स्थान देकर उनके अधिकारों की मांग को शांत करने की कोशिश की, लेकिन इसके विपरीत, इसने भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन को और तेज कर दिया। भारतीयों को शासन में केवल प्रतीकात्मक भागीदारी मिली, जिससे वे सरकार पर कोई ठोस प्रभाव नहीं डाल सके। इसके परिणामस्वरूप, भारतीय नेताओं ने पूर्ण स्वराज और आत्म-निर्णय की मांग को और अधिक मुखर कर दिया, जो आगे चलकर स्वतंत्रता संग्राम का आधार बनी।
5. विधान परिषदों की शक्तियों में वृद्धि (Increase in the powers of legislative councils):
भारत परिषद अधिनियम, 1909 के तहत केंद्रीय और प्रांतीय विधान परिषदों को कुछ अतिरिक्त अधिकार दिए गए, जिससे उनकी भूमिका पहले की तुलना में अधिक सक्रिय हो गई। हालांकि, इन शक्तियों को इस तरह सीमित रखा गया कि वे ब्रिटिश प्रशासन के नियंत्रण को चुनौती न दे सकें। परिषद के सदस्यों को कुछ मुद्दों पर चर्चा करने की स्वतंत्रता दी गई, लेकिन उनकी सिफारिशों को स्वीकार करना या न करना पूरी तरह ब्रिटिश सरकार पर निर्भर था।
बजट पर चर्चा का अधिकार (Right to discuss the budget):
इस अधिनियम के तहत पहली बार बजट पर चर्चा (Discussion on Budget) करने की अनुमति दी गई। इससे भारतीय सदस्य ब्रिटिश सरकार की वित्तीय नीतियों पर अपनी राय व्यक्त कर सकते थे। हालांकि, उनकी भूमिका केवल सलाहकार की थी – वे न तो बजट को पारित कर सकते थे और न ही उसे अस्वीकार करने का अधिकार रखते थे। ब्रिटिश सरकार वित्तीय मामलों पर अंतिम निर्णय स्वयं लेती थी, जिससे भारतीय सदस्यों की राय केवल औपचारिकता बनकर रह जाती थी।
कार्यकारी परिषद के सदस्यों से प्रश्न पूछने का अधिकार ("Right to question the members of the Executive Council):
परिषद के सदस्यों को सरकार के विभिन्न कार्यों पर प्रश्न पूछने (Questioning Right) का अधिकार दिया गया। यह एक महत्वपूर्ण बदलाव था, क्योंकि इससे भारतीय प्रतिनिधियों को ब्रिटिश अधिकारियों से स्पष्टीकरण माँगने का अवसर मिला। कार्यकारी परिषद के सदस्यों को उत्तर देना अनिवार्य कर दिया गया, जिससे सरकार को जनता के प्रति जवाबदेह बनाने की प्रक्रिया की शुरुआत हुई। हालांकि, भारतीय सदस्य केवल प्रश्न पूछ सकते थे, किसी भी प्रकार का दंडात्मक या बाध्यकारी निर्णय नहीं ले सकते थे।
विधायी प्रस्ताव और बहस का अधिकार (Right to legislative proposals and debates):
भारतीय सदस्य विधान परिषद में निजी विधेयक (Private Bills) पेश कर सकते थे। वे सरकार की नीतियों की आलोचना कर सकते थे और प्रशासन के कार्यों पर बहस कर सकते थे। लेकिन सरकार को इन सुझावों को मानने की बाध्यता नहीं थी, जिससे यह अधिकार केवल प्रतीकात्मक बना रहा।
प्रभाव और सीमाएँ (Impact and Limitations):
1. राजनीतिक जागरूकता में वृद्धि (Increase in political awareness):
इन सुधारों के कारण भारतीय नेता ब्रिटिश शासन की नीतियों की सार्वजनिक रूप से आलोचना करने लगे, जिससे आम जनता में राजनीतिक जागरूकता बढ़ी। परिषद में भारतीयों की उपस्थिति से ब्रिटिश नीतियों पर बहस शुरू हुई, जिससे प्रशासन पर जनता का प्रभाव धीरे-धीरे बढ़ा।
2. सीमित प्रभावशीलता (Limited effectiveness):
भारतीय सदस्य बजट पर चर्चा तो कर सकते थे, लेकिन कोई संशोधन या अस्वीकृति करने का अधिकार नहीं था। प्रश्न पूछने के अधिकार से सरकार को जवाबदेह बनाया जा सकता था, लेकिन यह अधिकार केवल औपचारिक था, क्योंकि कार्यकारी अधिकारी भारतीय नेताओं के सुझावों को अनदेखा कर सकते थे।
3. भविष्य के सुधारों की नींव (Foundation for future reforms):
यह अधिनियम आगे चलकर 1919 के भारत सरकार अधिनियम (Government of India Act, 1919) के लिए आधार बना, जिसमें भारतीयों को थोड़ी अधिक शक्तियाँ प्रदान की गईं। परिषदों में बहस और चर्चा की संस्कृति विकसित हुई, जिससे भारतीय नेताओं को प्रशासनिक प्रक्रिया को समझने का अनुभव मिला।
1909 के सुधारों ने भारतीयों को प्रशासन में कुछ हद तक भागीदारी दी, लेकिन यह प्रतीकात्मक और सीमित थी। ब्रिटिश सरकार ने यह सुनिश्चित किया कि भारतीय सदस्य केवल चर्चा करें लेकिन नीतियों को प्रभावित न कर सकें। इसके बावजूद, यह सुधार भारतीय राजनीति के विकास में एक महत्वपूर्ण कदम साबित हुआ और इससे आगे चलकर भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को नई दिशा मिली।
महत्व एवं प्रभाव (Importance and effect):
अलग निर्वाचक मंडल की शुरुआत ने भारत में सांप्रदायिक विभाजन को बढ़ावा दिया, जिससे आगे चलकर हिंदू-मुस्लिम एकता कमजोर हुई। इस अधिनियम से भारतीयों की राजनीतिक भागीदारी तो बढ़ी, लेकिन वे अभी भी निर्णय लेने की महत्वपूर्ण शक्तियों से वंचित थे। यह अधिनियम भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और अन्य राष्ट्रवादी संगठनों की अपेक्षाओं को पूरा नहीं कर सका, जिससे असंतोष बढ़ा। यह सुधार सीमित था लेकिन इसने 1919 के अधिनियम (मोंटेग-चेम्सफोर्ड सुधार) और 1935 के भारत सरकार अधिनियम की नींव रखी।
निष्कर्ष (Conclusion):
भारत परिषद अधिनियम, 1909, जिसे मॉर्ले-मिंटो सुधार के नाम से भी जाना जाता है, ब्रिटिश सरकार द्वारा भारतीय प्रशासन में सुधार के नाम पर उठाया गया एक ऐसा कदम था, जिसका मुख्य उद्देश्य भारतीयों को प्रशासन में भागीदारी का आभास कराना था। हालांकि, यह सुधार केवल सतही था क्योंकि वास्तविक शक्ति और निर्णय लेने का अधिकार ब्रिटिश अधिकारियों के पास ही केंद्रित रहा। इस अधिनियम के माध्यम से ब्रिटिश सरकार ने पहली बार सांप्रदायिक प्रतिनिधित्व की नीति अपनाई और मुसलमानों के लिए पृथक निर्वाचन प्रणाली की व्यवस्था की। इस कदम ने भारतीय समाज में राजनीतिक विभाजन को बढ़ावा दिया और सांप्रदायिकता की जड़ें और गहरी कर दीं। लंबे समय में, इस नीति ने भारत के राष्ट्रीय आंदोलन को कमजोर करने और अंततः देश के विभाजन की नींव रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
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