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हंस जे मोर्गेंन्थौ राष्ट्रों के बीच राजनीति: शक्ति और शांति के लिए संघर्ष" यथार्थवाद

 

हंस जे मोर्गेंन्थौ (जन्म 17 फरवरी, 1904, कोबर्ग , जर्मनी - मृत्यु 19 जुलाई, 1980, न्यूयॉर्क , न्यूयॉर्क, अमेरिका) एक जर्मन मूल के अमेरिकी राजनीतिक वैज्ञानिक और इतिहासकार थे, जिन्हें अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में शक्ति की भूमिका के एक प्रमुख विश्लेषक के रूप में जाना जाता है।

जर्मनी में बर्लिन , फ्रैंकफर्ट और म्यूनिख विश्वविद्यालयों में पहली शिक्षा प्राप्त करने के बाद , मोर्गेंथौ ने जिनेवा में अंतर्राष्ट्रीय अध्ययन के लिए ग्रेजुएट इंस्टीट्यूट में स्नातकोत्तर कार्य किया । उन्हें 1927 में बार में भर्ती कराया गया और उन्होंने फ्रैंकफर्ट में श्रम कानून न्यायालय के कार्यवाहक अध्यक्ष के रूप में कार्य किया। 1932 में वे एक वर्ष के लिए सार्वजनिक कानून पढ़ाने के लिए जिनेवा गए, लेकिन 1933 में जर्मनी में एडोल्फ हिटलर के सत्ता में आने के कारण वे 1935 तक वहीं रहे। 1935-36 में उन्होंने मैड्रिड में पढ़ाया और 1937 में वे संयुक्त राज्य अमेरिका में रहने चले गए, जहाँ 1943 में वे एक प्राकृतिक नागरिक बन गए। उन्होंने ब्रुकलिन (न्यूयॉर्क) कॉलेज (1937-39), मिसौरी विश्वविद्यालय-कैनसस सिटी (1939-43), शिकागो विश्वविद्यालय (1943-71), सिटी कॉलेज ऑफ़ द सिटी यूनिवर्सिटी ऑफ़ न्यूयॉर्क (1968-74) और न्यू स्कूल फ़ॉर सोशल रिसर्च (1974-80) के संकायों में कार्य किया।
1948 में मोर्गेंथौ ने प्रकाशित कियापॉलिटिक्स अमंग नेशंस , एक अत्यधिक प्रशंसित अध्ययन है, जिसने अंतर्राष्ट्रीय राजनीति के प्रति शास्त्रीय यथार्थवादी दृष्टिकोण के रूप में जाना जाने वाला दृष्टिकोण प्रस्तुत किया। इस कार्य में, मोर्गेंथौ ने कहा कि राजनीति प्रकृति के अलग-अलग अपरिवर्तनीय नियमों द्वारा संचालित होती है और राज्य इन नियमों की समझ से तर्कसंगत और वस्तुनिष्ठ रूप से सही कार्यवाहियाँ कर सकते हैं। मोर्गेंथौ के सिद्धांत का केंद्रबिंदु थाअंतर्राष्ट्रीय राजनीति में शक्ति को प्रमुख लक्ष्य मानना ​​और शक्ति के संदर्भ में राष्ट्रीय हित की परिभाषा को अपनाना। उनका राज्य-केंद्रित दृष्टिकोण, जो राज्य की नैतिक आकांक्षाओं को ब्रह्मांड को नियंत्रित करने वाले वस्तुनिष्ठ नैतिक नियमों से जोड़ने से इनकार करता था, इस बात पर अड़ा रहा कि राज्य के सभी कार्य शक्ति को बनाए रखने, प्रदर्शित करने या बढ़ाने के लिए होते हैं। उन्होंने शक्ति की प्रकृति और सीमाओं को पहचानने और समझौते सहित कूटनीति के पारंपरिक तरीकों के इस्तेमाल का आह्वान किया ।

अनेक विद्वत्तापूर्ण पत्रिकाओं और विचार पत्रिकाओं में योगदान देने वाले मोर्गेंथाऊ, साइंटिफिक मैन वर्सेस पावर पॉलिटिक्स (1946), इन डिफेंस ऑफ द नेशनल इंटरेस्ट (1951), डिलेमास ऑफ पॉलिटिक्स (1958), द पर्पज ऑफ अमेरिकन पॉलिटिक्स (1960), पॉलिटिक्स इन द ट्वेंटिएथ सेंचुरी (1962) और ट्रुथ एंड पावर (1970) के लेखक भी थे



 अंतर्राष्ट्रीय राजनीति का मूल स्वभाव शक्ति संघर्ष है।


राज्य (State) ही अंतर्राष्ट्रीय राजनीति की केंद्रीय इकाई है।


नैतिकता और भावनाओं से ऊपर, राष्ट्रीय हित (National Interest) को प्राथमिकता दी जानी चाहिए।


अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था अराजक (anarchic) होती है, अर्थात कोई केंद्रीय विश्व सरकार नहीं होती।

अंतर्राष्ट्रीय राजनीति का मूल स्वभाव शक्ति संघर्ष है।  

मार्गैन्थाऊ के छह नियम

1. पहला नियम: राजनीति पर प्रभाव डालने बाले सभी नियमों की जड़ें मानव प्रकृति में होती है (First Principle: Politics is Governed by Objectives Laws which have their Roots in Human Nature):


राजनीतिक यथार्थवाद का विश्वास है कि सामान्यत: समाज की भांति राजनीति भी उन यथार्थवादी अथवा वस्तुपरक नियमों (Objectives laws) से अनुशासित होती है, जो मानव प्रकृति में निहित हैं । राजनीति पर प्रभाव डालने वाले सभी नियमों की जड़ मानव प्रकृति में होती है ।

मनुष्य जिन नियमों के अनुसार विश्व में क्रिया-कलाप करता है वे सार्वभौम हैं और यह नियम हमारी नैतिक मान्यताओं से हमेशा अछूते रहते हैं । अत: समाज अथवा राजनीति का स्तर ऊंचा करने के लिए इन वस्तुनिष्ठ नियमों का ज्ञान आवश्यक है और इनकी उपेक्षा से केवल असफलता ही हाथ लगेगी ।

चूंकि यथार्थवाद राजनीति के वस्तुनिष्ठ सिद्धान्तों के अस्तित्व को स्वीकार करता है अत: मॉरगेन्थाऊ की मान्यता है कि इन सिद्धान्तों के तर्कसंगत आधार पर किसी सिद्धान्त (Theory) का निर्माण सम्भव है । यथार्थवाद की यह भी मान्यता है कि राजनीति में ‘सत्य’ एवं ‘मत’ में भेद करना सम्भव है ।

सत्य वस्तुनिष्ठ विवेकपूर्ण, साक्ष्य और तर्कसंगत होता है, जबकि मत व्यक्तिनिष्ठ, तथ्यों से निरपेक्ष पूर्वाग्रहों पर आधारित होता है । जब से प्राचीन चीनी, भारतीय एवं ग्रीक दर्शनों ने राजनीतिक विधियों के अन्वेषण की चेष्टा की है तब से मानव स्वभाव जिसमें राजनीति की विधियो की जड़ें हैं अपरिवर्तित ही रहा है ।


अत: मौलिकता या नवीनता राजनीतिक सिद्धान्त का कोई आवश्यक गुण नहीं है और न ही राजनीति के किसी सिद्धान्त को इसलिए अमान्य किया जा सकता है कि उसका प्रादुर्भाव प्रागैतिहासिक काल में हुआ था । शक्ति सन्तुलन का सिद्धान्त राजनीति में केवल इसीलिए अमान्य नहीं होता कि वह एक अत्यन्त प्राचीन सिद्धान्त है ।

राजनीति में अर्वाचीन अथवा प्राचीन जो भी सिद्धान्त तर्क अथवा अनुभव की कसौटी पर खरा उतरे वह मान्य होना चाहिए । ”राजनीति का कोई भी सिद्धान्त विवेक व अनुभव की विविध परीक्षा के अन्तर्गत लाया जाना चाहिए । यथार्थवाद के लिए तथ्यों को निश्चित करने तथा विवेक द्वारा उनमें सार प्रदान करने में ही सिद्धान्त निहित होता हे ।”

मॉरगेन्थाऊ का विश्वास है कि विदेश नीति का मूल्यांकन राजनीतिक गतिविधियों और उनके सम्भाव्य परिणामों की परीक्षा करने के बाद ही हो सकता है । किसी देश की विदेश नीति समझने के लिए यह आवश्यक है कि सर्वप्रथम तो हम उस देश के राजनेताओं के विभिन्न कार्यों पर दृष्टि डालें फिर अपनी तर्क बुद्धि से उनका विश्लेषण करके यह पता लगाने का प्रयत्न करें कि उन कार्यों के पीछे उन राजनीतिज्ञों के क्या उद्देश्य रहे होंगे ।

संक्षेप में, वास्तविक तथ्यों और उनके परिणामों की पृष्ठभूमि में तर्कनापरक मूल संकल्पनाओं की सत्यता की परीक्षा अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के तथ्यों को सार्थक बनाती है और राजनीति में एक निश्चित सिद्धान्त (Theory) की सम्भावना प्रस्तुत करती है ।

2. दूसरा नियम: राष्ट्रीय हितों को शक्ति के रूप में परिभाषित किया जा सकता है  (Second Principle: The Concept of National Interest Defined in Terms of Power):

यथार्थवादी राजनीतिक सिद्धान्त का दूसरा तत्व है राष्ट्रहित की प्रधानता । मॉरगेन्थाऊ के शब्दों में- ”शक्ति के नाम से लक्षित स्वार्थों का विचार ही वह प्रमुख मार्गदर्शक है जो अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के क्षेत्र में यथार्थवाद का पथ-प्रदर्शन करता है ।”

‘शक्ति के रूप में परिभाषित हित की अवधारणा’ अर्थात् राष्ट्रीय हितों की सिद्धि के लिए शक्ति का प्रयोग-एक ऐसा विचार है जिसके द्वारा अन्तर्राष्ट्रीय राजनीतिक तथ्यों और उन्हें समझने वाले विवेक के मध्य सम्बन्ध स्थापित किया जा सकता है ।

हित का केन्द्रबिन्दु सुरक्षा है और हितों की सुरक्षा के लिए शक्ति अर्जित की जाती है । राजनीति का मुख्य हेतु हितों का संबर्द्धन है और इसीलिए हम राजनीति को भी शक्ति से पृथक् करके नहीं समझ सकते । इसी आधार पर हम राजनीति को एक स्वतन्त्र विषय मानकर उसका अध्ययन कर सकते हैं ।

‘यथार्थवाद राजनीति को एक स्वतन्त्र क्रिया का क्षेत्र मानता है जो मानव जीवन के अन्य क्षेत्रों; जैसे अर्थशास्त्र, नीतिशास्त्र धर्म आदि से भिन्न है ।” शक्ति के रूप में परिभाषित हित’ के आधार पर ही हम अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों को सैद्धान्तिक रूप प्रदान कर सकते हैं ।

इतिहास के उदाहरणों को देखने पर स्पष्ट होता है कि राजनीतिज्ञ ‘शक्ति के रूप में परिभाषित हित’ की दिशा में ही सोचते और कार्य करते हैं । यही एक ऐसा विचार है जिसके आधार पर राष्ट्रों की विदेश नीतियों का आभास मिलता है ।

इसी सूत्र के आधार पर ब्रितानवी, अमरीकी तथा पूर्व सोवियत संघ की विदेश नीतियों का एक तर्कसंगत ऐतिहासिक आधार ढूंढा जा सकता है भले ही इन देशों की शासन प्रणालियां बदलती रही हों और कालान्तर से इन देशों के राजनीतिज्ञों का बौद्धिक नैतिक स्तर उनकी प्रेरणाएं और अभिरुचियां बदलती रही हों ।

मॉरगेन्थाऊ के अनुसार हम राजनीतिज्ञों के मन्तव्यों और प्रयोजनों को देखकर ही किसी देश की विदेश नीति को समझने का प्रयास करेंगे तो असफल रहेंगे और धोखा खाएंगे ।  राजनीतिज्ञों के वास्तविक प्रयोजनों के आधार पर हम यह निर्णय नहीं ले सकते कि उनकी विदेश नीतियां नैतिक दृष्टि से प्रशंसनीय तथा राजनीतिक दृष्टि से सफल रहेंगी ।

हम सभी जानते हैं कि चेम्बरलेन की तुष्टिकरण नीति अच्छे उद्देश्यों से प्रेरित थी और उनका ध्येय शान्ति की रक्षा करना था तथापि उनकी नीतियों ने द्वितीय विश्वयुद्ध को अवश्यम्भावी बनाने तथा करोड़ों लोगों को अकथनीय दुर्गति में पहुंचाने में सहायता दी ।

दूसरी और सर विंस्टन चर्चिल की विदेश नीति का प्रयोजन विश्वव्यापी न होकर व्यक्तिगत तथा राष्ट्रीय शक्ति की ओर कहीं अधिक संकीर्णता से उन्मुख था । यद्यपि चर्चिल की नीतियां चेम्बरलेन की शान्तिवादी नीतियों के परिणामों की अपेक्षा नैतिक और राजनीतिक दृष्टि से श्रेष्ठ समझी गयीं ।  अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति का यथार्थवादी सिद्धान्त इस बात की परवाह नहीं करता कि अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में क्या होना चाहिए और क्या हो रहा है अथवा उसमें क्या नैतिक है और क्या अनैतिक ।

वह तो केवल उन्हीं सम्भावनाओं की ओर ध्यान देता है जो किसी विशेष राष्ट्र के काल और स्थान की किन्हीं ठोस परिस्थितियों के अन्तर्गत आती हैं । राजनीतिक यथार्थवादी उसी विदेश नीति को अच्छी विदेश नीति समझता है जो तर्कसंगत एवं विवेक पर आधारित हो । अर्थात् वदेश नीति का सम्बन्ध उसकी सफलता की राजनीतिक आवश्यकताओं से होना चाहिए न कि किसी अन्य वस्तु से ।

3. तीसरा नियम: राष्ट्रीय हित का कोई निश्चित अर्थ नहीं होता है (Third Principle : Political Realism does not take a Fixed or Determined Meaning of Interest):

मॉरगेन्थाऊ राष्ट्रहित का कोई निश्चित अर्थ मानकर नहीं चलते । राष्ट्र हित का विचार वस्तुत: राजनीति का गूढ़ तत्व है जिस पर परिस्थितियों स्थान और समय का कोई प्रभाव नहीं पड़ता । फिर भी इतिहास के एक विशिष्ट काल में राजनीतिक कृत्य को निश्चयात्मक रूप देने वाला उन राजनीतिक व सांस्कृतिक प्रकरणों पर आश्रित रहता है जिनके मध्य विदेश नीति का निर्माण होता है ।

मॉरगेन्थाऊ का विश्वास है कि राजनीतिक व सांस्कृतिक वातावरण राजनीतिक क्रियाओं को अनुप्राणित करने वाले हितों को निर्धारित करने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है अत: शक्ति का विचार भी बदलती हुई परिस्थितियों के अनुसार बदलता रहता है ।

इस प्रकार मॉरगेन्थाऊ का विचार है कि अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के मूल तत्व स्थायी हैं किन्तु परिस्थितियां थोड़ी-बहुत-बदलती रहती हैं अत: एक सफल राजनीतिज्ञ के लिए आवश्यक है कि वह इन मूल तत्वों को बदलती हुई परिस्थितियों के अनुसार ढालने का प्रयत्न करता रहे ।


4. चौथा नियम: विवेक राजनीति का उच्चतम मूल्य (Fourth Principle: Realism Consider Prudence to be the Supreme Virtue in Politics):

राजनीतिक यथार्थवाद राजनीतिक कार्य की नैतिक महत्ता के प्रति सचेत हैँ तथापि राजनीति और नीतिशास्र में स्पष्ट भेद स्वीकार करता है । अमूर्त विश्वव्यापी नैतिक मान्यताओं के आधार पर राष्ट्रों का कार्यकलाप सम्भव नहीं है ।

राज्य के क्रिया-कलापों पर सार्वभौम नैतिक सिद्धान्तों को सार्वभौम अवधारणाओं के रूप में लागू नहीं किया जा सकता ओं इन नियमों में राज्यों को परिस्थितियों समय तथा अवसर के अनुसार परिवर्तन करना पड़ सकता है ।  यथार्थवाद का आग्रह है कि राष्ट्रों को नैतिक सिद्धान्तों का पालन विवेक और सम्भावित परिणामों के आधार पर ही करना चाहिए ।

यथार्थवाद विवेक को राजनीति में उच्चतम मूल्य मानता है ।  व्यक्ति अपने लिए कह सकता है कि न्याय किया जाना चाहिए चाहे विश्व नष्ट हो जाए परन्तु राज्य के संरक्षण में रहने वाले लोगों को राज्य से ऐसा कहने का कोई अधिकार नहीं है ।  कोई भी राज्य नैतिकता की दुहाई के आधार पर अपनी सुरक्षा को खतरे में नहीं डाल सकता । 

दूरदर्शिताहीन कोई भी राजनीति नैतिक नहीं हो सकती अर्थात् बाह्य रूप में नैतिक कृत्यों के राजनीतिक परिणामों पर ध्यान न देने वाली कोई भी राजनीतिक नैतिकता असम्भव है । अर्थात् राजनीति में राज्य का सबसे बड़ा गुण अस्तित्व रक्षा (Survival) है ।  नीतिशास्त्र किसी कार्य का मूल्यांकन शुद्ध नैतिक आधारों पर करता है जबकि राजनीतिक यथार्थवाद किसी भी कार्य को उसके राजनीतिक परिणामों से नापता  है । सफलता प्राप्ति उसका सबसे बड़ा मापदण्ड है ।

5. पांचवा नियम: राष्ट्र के नेतिक मूल्यों को सार्वभौमिक मूल्यों से पृथक मानना  (Fifth Principle: Political Realism Refuses to Accept any Identification between the Moral Aspirations of a Particular Nation and the Moral Laws which Govern the Universe):

राजनीतिक यथार्थवाद किसी राष्ट्र के नैतिक मूल्यों को सार्वभौम नैतिक मूल्यों से पृथक् मानता है अर्थात् किसी राष्ट्र विशेष की नैतिक कामनाओं और हमारे सनातन सार्वभौम नियमों के बीच कोई स्थायी सम्बन्ध नहीं है ।  यह विचारधारा जहां ‘सत्य’ और ‘मत’ में भेद करती है वहीं यह ‘सत्य’ और ‘अन्धविश्वास’ में भेद करती है ।

सामान्यतया राष्ट्र अपनी विशिष्ट आकांक्षाओं और नीतियों को स्वयं-सिद्ध आदर्श मानकर समूचे विश्व के लिए उपयोगी मानने की भूल कर बैठते हैं ।  यह मानना कि राज्यों को नैतिक नियम के अधीन करना चाहिए एक बात है और यह विश्वास करना कि सभी राष्ट्रों के आपसी सम्बन्धों के लिए एक ही नैतिक मान्यता हे और एक ही राष्ट्र उसकी स्थापना कर सकता है दूसरी भिन्न चीज है ।

यथार्थवादी दर्शन प्रत्येक राज्य को एक ऐसे राजनीतिक कर्ता के रूप में देखता है जो हमेशा शक्ति के माध्यम से अपने हितों की सिद्धि के कार्य में जुटा रहता है ।  यदि हम इस तथ्य को स्वीकार कर लें कि प्रत्येक राज्य शक्ति का विकास अपने हितों के विकास की पूर्ति के लिए करता है तो यह मान्यता हमें एकांगी नैतिक आदर्शों की दुहाई की अनिवार्यता से और इसी प्रकार राजनीतिक भूलों के दुष्परिणामों से बचा सकती है । प्रत्येक राष्ट्र यह जानकर कि उसकी ही भांति दूसरे राष्ट्र भी अपने राष्ट्रीय हितों की अभिवृद्धि में लगे हुए हैं, अधिक सन्तुलित और यथार्थवादी नीतियों का विकास हो सकेगा । 

मॉरगेन्थाऊ के शब्दों में- “शक्ति के मानदण्डों में वर्णित स्वार्थ का विचार ही हमें उस नैतिक और उस राजनीतिक भूल दोनों से ही बचाता है ।” क्योंकि अगर हम अपने राष्ट्र के साथ-साथ अन्य सब राष्ट्रों के शक्ति नामधारी स्वार्थों को लक्ष्य करने वाली राजनीतिक इकाइयों के रूप में दृष्टिपात करें तो हम उन सबके प्रति न्याय कर सकते हैं । अन्य राष्ट्रों की उसी भांति आलोचना करने के पश्चात् हम उन नीतियों का अनुसरण कर सकने की सामर्थ्य रखते हैं जो हमारे स्वार्थों की रक्षा व उन्हें उन्नत बनाने के साथ-साथ अन्य राष्ट्रों के स्वार्थों का आदर करती है ।

6. छठा नियम: राजनीतिक क्षेत्र की स्वायत्तता (Sixth Principle: Political Realism Maintains Autonomy of the Political Sphere):

राजनीतिक यथार्थवाद का अन्तिम नियम यह है, कि वह राजनीति के क्षेत्र की स्वायत्तता में विश्वास करता है । राजनीतिक क्षेत्र उतना ही स्वायत्ततापूर्ण है जितना कि आर्थिक अथवा कानून के क्षेत्र को माना जाता है ।  मॉरगेन्थाऊ के शब्दों में ”राजनीतिक यथार्थवादी राजनीतिक क्षेत्र की स्वायत्तता का समर्थन करता है; जैसे: अर्थशास्त्र विधिवेत्ता व नीतिशास्त्र का लेखक अपनी-अपनी स्वायत्तता का समर्थन करते हैं ।

वह शक्ति नाम से वर्णित स्वार्थ के रूप में सोचता है, जैसे- अर्थशास्त्री धन नामक स्वार्थ को लेकर विचार करता है विधिवेत्ता कार्यों की वैधिक नियमों की अनुरूपता का और नीतिशास्र का लेखक कार्यों की नैतिक सिद्धान्तों से अनुरूपता का विचार करता है ।


राजनीतिक यथार्थवाद गैर-राजनीतिक नियमों अथवा तत्वों की उपेक्षा भी नहीं करता है । पर वह उन्हें राजनीतिक नियमों के अधीन मानता है । यथार्थवाद उन सभी विचार धाराओं का विरोधी है जो राजनीतिक विषयों पर गैर-राजनीतिक नियमों को जबरदस्ती थोपने का प्रयत्न करती है ।

प्रत्येक अन्तर्राष्ट्रीय समस्या का कानूनी नैतिक और राजनीतिक पहलू होता है और राजनीतिज्ञ कानूनी और नैतिक मान्यताओं के महत्व को स्वीकार करते हुए उनका उतना ही उपयोग करते हैं जितना उपयुक्त होता है ।

कतिपय उदाहरणों से ये तथ्य स्पष्ट होते हैं:

(A) 1939 में सोवियत संघ ने फिनलैण्ड पर आक्रमण कर दिया । ब्रिटेन और फ्रांस के सामने इस समस्या के दो पक्ष थे-राजनीतिक और कानूनी । कानूनी दृष्टि से सोवियत संघ ने राष्ट्र सघ का उल्लंघन किया था और इन दोनों देशों द्वारा राष्ट्र संघ से सोवियत संघ का निष्कासन बिल्कुल उचित तथा वैध कदम था परन्तु इस निर्णय के राजनीतिक परिणाम बड़े भयंकर थे ।

राजनीतिक दृष्टि से सोवियत आक्रमण का विश्लेषण कई पहलुओं से करना था जैसे प्रथम सोवियत संघ के इस कार्य ने किस प्रकार फ्रांस और ब्रिटेन के हितों को प्रभावित किया था द्वितीय एक ओर ब्रिटेन फ्रांस और दूसरी ओर सोवियत संघ तथा अन्य ऐसी ही विरोधी शक्तियों जैसे जर्मनी आदि के शक्ति वितरण पर इसका क्या प्रभाव हो सकता था तृतीय फ्रांस तथा ब्रिटेनं के हितों तथा भविष्य के शक्ति विभाजन पर इसका क्या प्रभाव हो सकता था ।

ब्रिटेन और फ्रांस ने केवल कानूनी आधार पर निर्णय लिया और अपनी सेनाएं सोवियत आक्रमण का प्रतिरोध करने के लिए फिनलैण्ड की ओर भेज दीं । यह तो एक संयोग था कि स्वीडन ने इन सेनाओं को फिनलैण्ड तक पहुंचने के लिए अपने तटस्थ क्षेत्र से गुजरने की मनाही कर दी थी अन्यथा इन दोनों देशों को एक ओर सोवियत संघ से और दूसरी ओर जर्मनी के साथ दो मोर्चों पर एक साथ लड़ना पड़ता और दूसरे विश्वयुद्ध का रूप ही कुछ निराला हो जाता । संक्षेप में, ब्रिटेन और फ्रांस ने कानूनी पक्ष पर ध्यान दिया और राजनीतिक पक्ष की पूर्णत: उपेक्षा कर दी ।

(B) चीन में साम्यवादी शासन की स्थापना के बाद पश्चिमी देशों ने नैतिक दृष्टिकोण से विचार किया, न कि राजनीतिक दृष्टिकोण से । यह निष्कर्ष निकाला गया कि साम्यवादी चीनी सरकार की नीतियां पाश्चात्य विश्व के नैतिक आदर्शों के अनुकूल नहीं हैं अत उससे किसी प्रकार का सम्बन्ध स्थापित न करना ही समीचीन है ।

यही कारण था कि वर्षों तक साम्यवादी सरकार को मान्यता नहीं दी गयी और नैतिकता के आवरण की आड में चीन को संयुक्त राष्ट्र संघ का सदस्य बनने योग्य नहीं पाया गया ।  1971 में अमरीकी राष्ट्रपति निक्सन ने चीन-रूस के सीमा संघर्ष दक्षिण वियतनाम में युद्ध के प्रति व्यापक बौद्धिक असन्तोष वियतनाम की लड़ाई के लिए सेना में भर्ती के कारण अमरीका में उत्पन्न भीषण रोष के कारण तथा अमरीका की अर्थव्यवस्था पर पड़ने वाले भीषण और गम्भीर दुष्परिणामों की दृष्टि से यह निर्णय किया कि अमरीका की शक्ति के प्रसार एवं राष्ट्रीय हित की दृष्टि से चीन को मान्यता देना उपयोगी होगा ।

पहले यदि अमरीका ने चीन को मान्यता नहीं दी थी तो उसे मान्यता न देने का कारण नैतिक था । 1971 में उसे मान्यता देने का कारण राजनीतिक था अमरीका द्वारा अपने राष्ट्रीय हित की दृष्टि से ऐसा किया गया था ।

(C) ब्रिटेन ने बेल्जियम की तटस्थता की गारण्टी दी थी और 1914 में जब जर्मनी ने बेलियम की तटस्थता को भंग किया तो उसे जर्मनी के विरुद्ध युद्ध की घोषणा करनी पड़ी ।  क्या ब्रिटेन ने अपने नैतिक दायित्व को पूरा करने के लिए ही अपनी सेनाएं भेजीं राजनीतिक सत्य यह है कि इन नीचे प्रदेशों पर किसी शत्रु राष्ट्र का अधिकार ब्रिटेन की स्वतन्त्रता के लिए बहुत बड़ा खतरा माना गया था और इसलिए उसने जर्मनी के विरुद्ध युद्ध की घोषणा की ।

यदि किसी मित्र राष्ट्र ने बेल्जियम की तटस्थता का उल्लंघन किया होता तो शायद ब्रिटेन युद्ध शुरू करने में इतनी शीघ्रता नहीं दिखाता । यहां वस्तुत राजनीतिक और नैतिक पक्ष परस्पर पूरक हो गए थे । उपर्युक्त उदाहरण इस बात को भली-भांति स्पष्ट करते हैं कि राजनीतिक प्रश्नों को नैतिक कानूनी आर्थिक तथा अन्य दृष्टिकोणों से सर्वथा पृथक् रखना चाहिए । केवल राष्ट्रीय हित और शक्ति के विस्तार की कसौटी से ही इन प्रश्नों का निर्णय किया जाना चाहिए ।

राजनीतिक यथार्थवाद अन्तर्राष्ट्रीय समस्या के कानूनी नैतिक और राजनीतिक पक्षों के उचित समन्वय पर बल देता है । राजनीतिक यथार्थवाद मानव स्वभाव के बहुलवादी रूप को स्वीकार करता है ।  उनके अनुसार राजनीति का यथार्थ व्यक्तित्व उसके ‘आर्थिक व्यक्तित्व’, ‘राजनीतिक व्यक्तित्व’ तथा ‘धार्मिक व्यक्तित्व’ का उचित समन्वय है जो मनुष्य केवल ‘राजनीतिक मनुष्य’ है वह एक पशु तुल्य होगा, क्योंकि वह नैतिक परिधियों से पूर्णतया स्वतन्त्र होगा वह मनुष्य जो पूर्णत: ‘धार्मिक व्यक्ति’ है एक साधु होगा क्योंकि उसमें सांसारिक इच्छाएं नहीं होंगी । 

. मॉरगेन्थाऊ के सिद्धान्त का मूल्यांकन (Appraisal of Morgenthau’s Theory):

मॉरगेन्थाऊ के यथार्थवादी सिद्धान्त की विभिन्न आलोचकों ने तार्किक आलोचना प्रस्तुत की है । उदाहरण के लिए- रॉबर्ट टकर का कहना है कि ये सिद्धान्त न तो वास्तविकता से मेल खाते हैं और न अपने       आपसे । हॉफमैन का कहना है कि इस सिद्धान्त में असंगतियों की भरमार है ।

इस सिद्धान्त के आलोचकों के मुख्य तर्क निम्नलिखित हैं:

(1) मॉरगेन्थाऊ का सिद्धान्त अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के केवल एक पक्ष के अध्ययन के लिए ही मार्गदर्शन का कार्य करता है और वह पक्ष ‘हित संघर्ष’ । वह इस बात को मानकर चलता है कि अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में सदैव विभिन्न राष्ट्रीय हितों में संघर्ष होता रहता है ।

इसमें कोई सन्देह नहीं कि विभिन्न देश अपने राष्ट्रीय हितों की प्राप्ति के लिए संघर्ष करते रहते हैं किन्तु इसके साथ ही वे सहयोग भी करते हैं । मॉरगेन्थाऊ सहयोग के इस पहलू की सर्वथा उपेक्षा करता है । इसीलिए उसका दृष्टिकोण एकांगी प्रतीत होता है ।

(2) मॉरगेन्थाऊ का दावा है कि उनका सिद्धान्त मानव प्रकृति के यथार्थ स्वरूप से उद्‌भूत होता है किन्तु मानव प्रकृति सम्बन्धी उनकी धारणाएं वैज्ञानिक न होकर बहुत कुछ अनुमान पर आधारित होती हैं । बैरी बासरमैन का यह कथन ठीक है कि मॉरगेन्थाऊ का सिद्धान्त निरपेक्ष एवं अप्रामाणिक आवश्यकतावादी नियमों (Unverifiable Essential of Laws) पर आधारित है ।

(3) मॉरगेन्थाऊ का मानव प्रकृति के बारे में दोषपूर्ण तथा अवैज्ञानिक विचार है । वह निरीक्षण और परीक्षण का सर्वसम्मत वैज्ञानिक पद्धति के आधार पर मनष्यों के स्वभाव के सम्बन्ध में कोई परिणाम नहीं निकालता है, अपितु शुरू से ही कुछ ऐसे सामान्य सिद्धान्तों को स्वयं-सिद्ध सत्य मानकर चलता है जिन्हें वस्तुत: उसे वैज्ञानिक रीति से सिद्ध करना चाहिए था ।

इसलिए उसके सिद्धान्तों में पारस्परिक विरोध भी पाया जाता है । वह यह मानकर चलता है कि सब मनुष्य और सब राज्य शक्ति की लालसा रखते हैं, उसे सदैव पाने और बढ़ाने का प्रयत्न करते हैं, इस बात को उसने स्वयं-सिद्ध सत्य मान लिया है ।

यदि इसे ऐसा मान लिया जाए तो यह भी मानना पड़ेगा कि अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में सदैव कभी न समाप्त होने वाले शाश्वत युद्धों का एक अविच्छिन्न क्रम चलता रहता है । शान्ति तभी होती है जब राष्ट्र लड़ते-लड़ते थक जाते हैं और वह इस सामान्य नियम के अपवाद के रूप में पाई जाती है ।

फिर भी मॉरगेन्थाऊ शान्ति को वांछनीय समझता है और अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में इस स्थिति को अधिक पसन्द करता है । यदि यथार्थवाद के दृष्टिकोण को सही माना जाए तो संघर्ष की स्थिति ही वास्तविक है और शान्ति की स्थिति को वांछनीय समझना उचित नहीं है ।

(4) मॉरगेन्थाऊ के सिद्धान्त के विरुद्ध यह भी आलोचना की जाती है कि यह एक अपूर्ण सिद्धान्त है। हैरल्ड साउंट ने इस सिद्धान्त को इसलिए अपूर्ण बताया है क्योंकि उसमें राष्ट्रीय नीतियों के लक्ष्यों (आदर्शों) की उपेक्षा की गयी है । किसी राइट के अनुसार यह सिद्धान्त एकांगी है, क्योंकि वह राष्ट्रीय नीति पर मूल्यों (Values) के प्रभाव की उपेक्षा करता है।

(5) मॉरगेन्थाऊ ने शक्ति को साध्य माना है । राज्यों के समस्त सम्बन्ध शक्ति के अधिकाधिक संचय करने के लिए होते हैं । हॉफमैन के अनुसार सत्ता अथवा शक्ति केवल एक माध्यम है जिससे राज्य अपना लक्ष्य प्राप्त करते हैं । यह अधिक उचित होता है कि अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के सिद्धान्त की व्याख्या साध्य को समुख रखकर की जाती है, न कि साधन की अवधारणा को ही साध्य  मानकर ।

(6) मॉरगेन्थाऊ सिद्धान्त रचना की उस सामान्य पद्धति को भी ग्रहण नहीं करते जिसके अनुसार सिद्धान्त का निर्माण तथ्यों के अनुभवात्मक सर्वेक्षण (Empirical investigation of facts) के परिणामस्वरूप किया जाता   है । वे कुछ ऐसी धारणाओं को लेकर सिद्धान्त बनाने (Theory-building) का प्रयत्न करते हैं जिन्हें वे देशकाल के प्रभाव से  मुक्त मानते हैं ।

यदि वे यह कहते है कि मानव स्वभाव के अनुभवात्मक अध्ययन तथा राज्यों की नीतियों के व्यवहारवादी अध्ययन से यह निष्कर्ष निकलता है कि व्यक्ति और राज्य दोनों ही शक्तिलोलुप हैं, तो अधिक तार्किक होता । लेकिन उन्होंने अपने सिद्धान्त को एक परिणाम के रूप में न रखकर पहले उसे एक सत्य के रूप में रखा और बाद में उसकी पुष्टि के लिए प्रमाण जुटाने का प्रयत्न किया है।

(7) मॉरगेन्थाऊ का यह कहना भी अतिशयोक्तिपूर्ण है कि प्रत्येक राष्ट्र शक्ति को प्राप्त करना चाहता है । सच्चाई यह है कि शक्ति राष्ट्र का एक लक्ष्य हो सकता है परन्तु शक्ति के साथ में वह अन्य लक्ष्यों की भी आकांक्षा रख सकता है । वह अपनी विदेश नीति का संचालन आर्थिक लाभ विश्वशान्ति आदि के परिप्रेक्ष्य में भी कर सकता है ।

(8) मॉरगेन्थाऊ ने शक्ति पर बहुत अधिक बल दिया है । वह सभी अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों की व्याख्या एकमात्र शक्ति पाने की लालसा के आधार पर ही करना चाहता है । अधिकांश विद्वान अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों को एक ऐसी अत्यन्त जटिल प्रक्रिया समझते हैं, जिसकी व्याख्या किसी एक कारण या तथ्य के आधार पर नहीं की जा सकती । राष्ट्रीय हित को शक्ति के अतिरिक्त अन्य अनेक तत्व शासन का स्वरूप जनता के विश्वास और विचार राज्य की आन्तरिक स्थिति प्रभावित करते हैं । मीरग्प्तेथाऊ ने इन सबकी उपेक्षा की है ।

(9) मॉरगेन्थाऊ अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति को कभी समाप्त न होने वाले शक्ति संघर्ष के रूप में देखते हैं । यदि हम इस तथ्य को स्वीकार कर लें तो हमें अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति के विचार को हमेशा के लिए तिलांजलि देनी पड़ेगी ।  फिर अन्तर्राष्ट्रीय जगत में ऐसे बहुत-से कार्य और सम्बन्ध हैं जो गैर-राजनीतिक हैं और जिनका शक्ति के साथ कोई सम्बन्ध नहीं है ।

मार्गेंथाऊ का सिद्धांत अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के केवल एक अंग के अध्ययन के लिए ही मार्गदर्शन का कार्य करता है, और वह अंग है हित संघर्ष (conflict of interests)। वह इस बात को मानकर चलता है कि अंतर्राष्ट्रीय क्षेत्र में सदैव विभिन्न राष्ट्रीय हितों में संघर्ष होता रहता है।
मोर्गेंथाऊ ने राष्ट्रीय हित को दो प्रकारों में वर्गीकृत किया है। 1) मूल राष्ट्रीय हित: मूल राष्ट्रीय हित मौलिक होते हैं, बदलते नहीं हैं और इसलिए देश विदेश नीति में निरंतरता दिखाते हैं। 2) परिवर्तनशील राष्ट्रीय हित: परिवर्तनशील हित, विदेश नीतियों में परिवर्तन के साथ निरंतरता देखने के कारण हैं।


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