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जेरेमी बेंथम (Jeremy Bentham) उपयोगितावाद के पुरोधा

 जेरेमी बेंथम (Jeremy Bentham) (15 फरवरी 1748 – 6 जून 1832) एक प्रमुख अंग्रेज़ दार्शनिक, न्यायविद् और समाज सुधारक थे, जिन्हें उपयोगितावाद (Utilitarianism) के जनक के रूप में जाना जाता है।


जीवन परिचय

जन्म: 15 फरवरी 1748, लंदन, इंग्लैंड


मृत्यु: 6 जून 1832


बेंथम बचपन से ही असाधारण प्रतिभाशाली थे और उन्होंने बहुत कम उम्र में पढ़ाई पूरी कर ली थी।


प्रमुख विचार और सिद्धांत

1. उपयोगितावाद (Utilitarianism):


बेंथम के अनुसार, नैतिकता का आधार “अधिकतम लोगों का अधिकतम सुख” (The greatest happiness of the greatest number) होना चाहिए।

बेंथम का उपयोगितावाद एक नैतिक सिद्धांत है जो कहता है कि किसी कार्य की नैतिकता इस बात से निर्धारित होती है कि वह कार्य कितना सुख (खुशी) उत्पन्न करता है और कितना दुख (पीड़ा) कम करता है। इसे "अधिकतम लोगों के अधिकतम सुख" के सिद्धांत के रूप में भी जाना जाता है। बेंथम के अनुसार, एक कार्य को नैतिक माना जाता है यदि वह अधिक लोगों के लिए अधिक सुख या कम दुख लाता है, और अनैतिक माना जाता है यदि वह कम लोगों के लिए अधिक दुख या कम सुख लाता है। 


उन्होंने सुख और दुख को मापने के लिए “सुखमापी” (Hedonic Calculus) नामक विधि का प्रस्ताव दिया।


उनके अनुसार, किसी कार्य की नैतिकता उसकी उपयोगिता पर निर्भर करती है—वह कार्य कितना सुख उत्पन्न करता है और कितना दुख कम करता है।

उपयोगितावाद के प्रकार

सुखवादी उपयोगितावाद: इसके समर्थकों का मानना है कि उपयोगिता का आधार सुख है। अर्थात् ‘सुखवादी उपयोगितावाद’ के मूल में ‘सुख’ है।

आदर्श मूलक उपयोगितवाद: इसमें उपयोगिता की धारणा केवल सुख तक सीमित न होकर व्यापक है। अर्थात् इसमें सुख तो शामिल है ही, परंतु सुख के अलावा अन्य आधार भी हो सकते हैं जैसे- ज्ञान, सत्य, सद्गुण तथा चारित्रिक श्रेष्ठता को भी सुख की तरह स्वत: शुभ माना जा सकता है।

कर्म संबंधी उपयोगितावाद: इसमें कार्य के संदर्भ में तय किया जाता है कि वह समाज के लिये उपयोगी है या नहीं। इसे पुन: दो उप प्रकारों में बाँटा गया है- 1. सीमित कर्म संबंधी उपयोगितावाद, 2. व्यापक कर्म संबंधी उपयोगितावाद।

नियम संबंधी उपयोगितावाद: इसमें विशेष कृत्यों का नहीं बल्कि नियमों की उपयोगिता का निश्चय किया जाता है, अर्थात् कोई नियम समाज के लिये उपयोगी है या नहीं।

निकृष्ट उपयोगितावाद: इसमें सुखों में गुणात्मक भेद नहीं माना जाता, अर्थात् केवल मात्रात्मक भेद माना जाता है; जैसा कि बेंथम ने माना था।

उत्कृष्ट उपयोगितावाद: इसमें सुखों में गुणात्मक भेद को भी स्वीकार किया जाता है; जैसा कि मिल ने माना था।

उपयोगितावाद के सिद्धांत का महत्त्व

बेंथम का उपयोगितावाद का सिद्धांत विधि-वेत्ताओं से ऐसे कानून या नियम बनाने की बात करता है जो ‘अधिकतम व्यक्तियों को अधिकतम सुख प्रदान करें, वस्तुत: यह कल्याणकारी राज्य की स्थापना में सहायक है।’

उपयोगितावाद का सिद्धांत सार्वभौमिक सिद्धांत है। व्यक्ति प्रत्येक कार्य सुख की भावना से प्रेरित होकर ही करता है, फिर चाहे एक शहीद का जीवन अर्पण करना हो या एक सन्यासी का सन्यास धारण करना।

यह वस्तुगत तथ्यों पर आधारित है। स्वयंसिद्ध नैतिक नियमों में विश्वास न कर अनुभव पर आधरित है।

अर्थात यह पारभौतिक नियमों को नकार देता है, जिससे इसे वैज्ञानिक एवं आनुभविक धरातल प्राप्त होता है।

क्योंकि यह परिणामों पर आधारित है इसलिये अधिक तर्कसंगत प्रतीत होता है।

आलोचना

यह परिणामों पर ध्यान केंद्रित करता है, केवल परिणामों के आधार पर किसी कार्य को पूर्णत: सही या गलत नहीं ठहराया जा सकता।

यह सुख की बात पर केंद्रित है। वस्तुत: कोई कार्य किसी व्यक्ति को सुख प्रदान करने वाला हो सकता है, वहीं अन्य व्यक्ति के लिये वह कार्य पीड़ादायी भी हो सकता है; ऐसा संभव है।

इसमें ‘सुख’ का एक आशय ‘पीड़ा से बचाव’ भी है। वस्तुत: प्रत्येक पीड़ा बुरी नहीं होती, वह दीर्घकालीन समय में सुख प्रदान करने वाली हो सकती है जैसे- कहा जाता है कि ‘गलतियों से ही इंसान सीखता है’, असफलता ही सर्वश्रेष्ठ शिक्षक है।

मानव जीवन में सुख की आकांक्षा ही एकमात्र उद्देश्य नहीं होता, अधिकांशतः: व्यक्ति कर्त्तव्य की भावना से प्रेरित होकर कार्य करते हैं। ‘गीता’ में भी कहा गया है कि ‘कर्म कर, फल की इच्छा मत कर’ अर्थात् कर्म करना व्यक्ति का कर्त्तव्य है।

आध्यात्मिक सुख के स्थान पर सापेक्षिक भौतिकवादी सुख पर अधिक ध्यान केंद्रित करने के कारण अराजकता, स्वार्थपरकता जैसे भावों को बढ़ावा मिल सकता है।

रॉक्स जैसे उदारवादी चिंतकों का मानना है कि उपयोगितवाद ‘अधिकतम व्यक्तियों के अधिकतम सुख’ की आकांक्षा रखता है, किंतु इस प्रयास में समुदाय के कुछ व्यक्ति छूट जाते हैं, जो उनके लिये अन्यायपूर्ण है।

निष्कर्षत: उपयोगितावाद का सिद्धांत जीवन को अधिकतम लोगों द्वारा यथासंभव ‘पीड़ामुक्त’ बनाने पर केंद्रित है। सामान्यत: यह एक प्रशंसा योग्य लक्ष्य की भाँति लगता है। परंतु यदि सभी इस जीवन में ‘अधिकतम सुख की प्राप्ति के लिये ही जीवित रहेंगे तो जीवन का व्यापक दृष्टिकोण संकीर्ण/धुंधला हो जाएगा।


2. कानून और न्याय  पर विचार


बेंथम ने कानूनों में सुधार की वकालत की और उनका मानना था कि कानूनों का उद्देश्य भी अधिकतम सुख को बढ़ावा देना होना चाहिए।


उन्होंने कठोर और अन्यायपूर्ण कानूनों की आलोचना की और उन्हें मानवीय और उपयोगी बनाने का सुझाव दिया।


जेल सुधार, अपराधियों के पुनर्वास और दंड व्यवस्था में सुधार पर भी बल दिया।


3. राजनीतिक दर्शन:


बेंथम ने लोकतंत्र और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का समर्थन किया।


उन्होंने सरकार को जनता के प्रति जवाबदेह बनाने, मताधिकार के अधिकार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का समर्थन किया।


उन्होंने सुझाव दिया कि मतदान का अधिकार प्रत्येक वयस्क को मिलना चाहिए और चुनाव नियमित रूप से हों।


4. दंड और अपराध:


बेंथम के अनुसार, दंड का उद्देश्य अपराध को रोकना और समाज में सुधार लाना होना चाहिए।


दंड अपराध के अनुपात में हो, अनावश्यक या निर्दयी न हो, और उसमें सुधार की भावना हो।


प्रमुख कृतियाँ

Fragment on Government (1776)


Introduction to Principles of Morals and Legislation (1789)


Defence of Usury (1787)


Punishments and Rewards (1811)


Poor Law (गरीबों के लिए कानून में सुधार संबंधी सुझाव)


अन्य विशेषताएँ

बेंथम ने प्राकृतिक विधि और प्राकृतिक अधिकारों के सिद्धांतों का विरोध किया।


उन्होंने धर्म और नैतिकता को तभी स्वीकार्य माना जब वे व्यक्ति का सुख बढ़ाएं और दुख कम करें।


बेंथम धर्मनिरपेक्ष राज्य के समर्थक थे।


निष्कर्ष:#politworld360

जेरेमी बेंथम ने अपने विचारों और सिद्धांतों के माध्यम से आधुनिक न्याय, राजनीति, और नैतिकता की दिशा को गहराई से प्रभावित किया। उनका “अधिकतम सुख” का सिद्धांत आज भी नैतिक और सामाजिक विमर्श का एक महत्वपूर्ण आधार है

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