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महाराजा रायसिंह राजपूताने का कर्ण

 राजस्थान के पश्चिमोत्तर भाग प्राचीन काल में मरू प्रदेश कहलाता था जो कालांतर मारवाड़ कहलाया इसमें प्रशासनिक रूप से जोधपुर, बीकानेर, जालौर ,बाड़मेर, नागौर पाली, किशनगढ़ व आसपास का क्षेत्र सम्मिलित है यहां पर प्रारंभ में गुर्जर प्रतिहार वंश तत्पश्चात राठौड़़ वंश का शासन रहा जो राजस्थान के निर्माण तक था! राठौड़़ शब्द भाषा में एक राजपूत जाति के लिए प्रयुक्त किया जाता है जिसे संस्कृत में राष्ट्रकूट कहा जाता है                                                  राज रत्नाकर के अनुसार राठौड़ हिरण्य कश्यप की संतान थे जोधपुर राज्य की ख्यात में इन्हें राजा विश्वुतमान के पुत्र राजा वृहदबल की संतान बताया दयालदास की ख्यात में से सूर्यवंशी बताया ब्राह्मण वंश में होने वाले भल्लावराव की संतान माना आज हम बीकानेर रियासत के राठौड़ वंश के राजाओं के बारे में अध्ययन करेंगे प्राचीन काल में बीकानेर को जांगल देश के नाम से जाना जाता था और इनकी राजधानी अहिच्छत्रपुर मानी जाती थी तो आज हम बीकानेर के राठौड़ वंश के महाराजा रायसिंह के बारे में अध्ययन करेंगे                                   



                                                                                                                                                             महाराजा रायसिंह                                                                             महाराजा रायसिंह का जन्म 20 जुलाई 1541 को हुआ राव कल्याणमल की मृत्यु के बाद उनके सुयोग्य पुत्र राव रायसिंह को बीकानेर का शासक बनाया गया रायसिंह ने मुगलों की अच्छी सेवा की थी अतः वह सम्राट अकबर और जहांगीर का अत्यधिक विश्वस्त सेनानायक था राय सिंह ने मुगलों के लिए गुजरात, काबुल और कंधार अभियान किया रायसिंह ने महाराजा की पदवी धारण की                                                                                       अकबर ने रायसिंह को 1572 ईस्वी में जोधपुर दिया गुजरात के मिर्जा बंधुओं के दमन के लिए 1573 ईस्वी में भेजी गई शाही सेना में रायसिंह भी थे जिन्होंने कठौली नामक स्थान पर इब्राहिम हुसैन मिर्जा को पराजित किया इसके बाद 1574 ईस्वी में सिरोही के देवड़ा सुरतान व बीजा देवड़ा के मध्य अनबन हो गई तब रायसिंह ने सिरोही पर आक्रमण करके बीजा को राज्य से बाहर निकाल दिया और आधा सिरोही मुगलों के अधीन कर मेवाड़ से नाराज होकर आए महाराणा प्रताप के सौतेले भाई जगमाल को दे दिया सुरतान ने मुगलों पर आक्रमण कर दिया दोनों सेनाओं के मध्य 1583 ईस्वी को दताणी नामक स्थान पर युद्ध हुआ! दताणी के युद्ध में जगमाल की मृत्यु हो गई सुरतान ने सिरोही पर अब वापस अधिकार कर लिया                                                                                                                                                         1581 ईस्वी मानसिंह कच्छवाहा की सहायता के लिए एक जत्था रायसिंह के नेतृत्व में भेजा गया इसी प्रकार बलूचिस्तान में विद्रोही सरदारों का दमन करने के लिए रायसिंह को भेजा गया जिसमें रायसिंह सफल हुआ जब खानेखाना ने कंधार के विद्रोह को दबाने के लिए बादशाह से सहायता मांगी तो 1591ईस्वी में रायसिंह को उसकी सहायता के लिए भेजा गया इसी प्रकार बुरहानमुल्क के विरुद्ध दानियाल के 1593 ईस्वी के अभियान में रायसिंह सम्मिलित था जब 1599 ईस्वी एव 1603 ईस्वी में सलीम के नेतृत्व में मेवाड़ अभियान किया गया तो रायसिंह को इस अभियान में सम्मिलित किया गया                                                                                                                                                                         अकबर ने राय सिंह की सेवा से संतुष्ट होकर उसे 1593 ईस्वी में जूनागढ़ का प्रदेश में 1604 ईस्वी में शमशाबाद तथा नूरपुर की जागीर दी और राय की उपाधि प्रदान की   यहां यह तथ्य उल्लेखित करना प्रासंगिक होगा कि जालंधर बादशाह की उपाधि महाराजा कर्णसिंह को औरंगजेब ने दी और औरंगजेब ने महाराजा व माहीमरातीब की उपाधि महाराजा अनूपसिंह को दी
                                                                                                                                                                                        जहांगीर का विश्वास मानसिंह कच्छवाहा की बजाय रायसिंह पर अधिक था! जहांगीर 1605 ईस्वी में मुगल सम्राट बना तो उन्होंने रायसिंह का मनसब 5000 जात/ 5000 सवार कर दिया जहां भी मुगल हितों की रक्षा करनी होती रायसिंह की सेवाएं दी जाती थी इन्होंने मंत्री कर्मचंद की देखरेख में बीकानेर में जूनागढ़ किले का निर्माण 1589 ईस्वी से 1594ईस्वी में करवाया किले के भीतर इसके एक प्रशस्ति लिखवाई जिसे अब रायसिंह प्रशस्ति कहते हैं   !                                                                                                                                                                                  रायसिंह एक धार्मिक विद्यानुरागी, दानी शासक था इन्होंने रायसिंह महोत्सव, वैधक वंशावली ,बाल बोधिनी, व ज्योतिष रतन माला पर टीका लिखी कर्मचंद्रवंशोत्कीर्तनकाव्यम् में महाराजा रायसिंह को राजेंद्र कहां गया है इसमें लिखा गया है कि वह शत्रुओ के साथ बड़े सम्मान का व्यवहार करते थे रायसिंह के समय घौर त्रिकाल पड़ा जिसमें हजारों व्यक्तियों, पशु मारे गए महाराजा ने व्यक्तियों के लिए जगह-जगह सदाव्रत खोले और पशुओं के लिए चारे पानी की व्यवस्था की इसीलिए मुंशी देवी प्रसाद ने इसे राजपूताने का कर्ण की संज्ञा दी यहां यह तथ्य उल्लेखित करना प्रासंगिक होगा कि बिठू सूजा ने अपने ग्रंथ जैतसी रो छंद में राव लूणकर्ण को कलयुग का कर्ण कहा था राजपूताने का भागीरथ महाराजा गंगा सिंह को माना जाता है                                                                                                                                                                                                                                                सन 1612 ईस्वी में दक्षिण भारत बुरहानपुर में महाराजा रायसिंह की मृत्यु हो गई यहां यह तथ्य उल्लेखित करना प्रासंगिक होगा कि महाराजा रायसिंह अपने बड़े़ पुत्र दलपत सिंह की बजाय सुरसिंह को अपना उत्तराधिकारी बनाना चाहते थे परंतु जहांगीर ने रायसिंह की इच्छा के विरुद्ध दलपतसिंह को टीका भेजकर बीकानेर का शासक स्वीकार किया                                                                
यहां यह तथ्य उल्लेखित करना आवश्यक है कि बीकानेर महाराजा रायसिंह के एक पुत्र ठाकुर किशन सिंह ने 1608 ईस्वी में चूरू जिले की राजगढ़ तहसील में   साँखू फोर्ट ठिकाने की स्थापना की जो जयपुर रियासत के शेखावाटी क्षेत्र व हरियाणा के लोहारू रियासत की सीमा पर स्थित है जिसने बीकानेर रियासत की जयपुर रियासत व लोहारू रियासत से आक्रमणों से रक्षा की ठाकुर किशन सिंह   के एक वशंज ने चूरू जिले की राजगढ़ तहसील में नींमा में ठिकाने की स्थापना की
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