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राजस्थान में मराठों का प्रसार एवं उनके परिणाम

राजस्थान में मराठों का प्रसार एवं उनके परिणाम                                                                                                  मुगल साम्राज्य के पतन होने के फलस्वरूप राजस्थान में भी भयंकर अराजकता फैल  गई । अशांति की प्रलकारी आग भड़क उठी है अब तक जो व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा  और रियासतों की आपसी प्रतिस्पर्धा रुकी हुई थी निर्बाध रूप से फूट पड़ी।                                                                                                                                              इतिहासकार जदुनाथ सरकार के शब्दों में समस्त राजस्थान एक ऐसा  अजायबघर बन गया जिनके पिजड़ो के फाटक और रक्षक ही हटा दिए गए हो ।16 नवंबर 1713 को छत्रपति साहू ने बालाजी विश्वनाथ को अपना पेशवा नियुक्त किया मराठों ने फर्खूसियर को पद से हटाकर रफी उद दरजात को नया मुगल बादशाह बनाया मराठों के समक्ष मुगल शासकों का खोखलापन  स्पष्ट हो गया मुगल दरबार में दलबंदी षड्यंत्र और मुगल अमीरों की स्वार्थलिप्सा देखकर मराठों को विश्वास हो गया कि मुगल साम्राज्य मरन्नासन है बालाजी विश्वनाथ की मृत्यु के बाद साहू ने उनके 20 वर्षीय पुत्र बाजीराव प्रथम को अपना पेशवा नियुक्त किया । पेशवा बाजीराव प्रथम ने हिंदू पद पादशाही की अवधारणा विकसित की ।                                                                                                            

 बाजीराव एक साहसी सैनिक कुशलता कूटनीतिज्ञ राजनीतिज्ञ था। उत्तर की ओर मराठा प्रसार से राजपूतों को विशेष रूप से चिंता होने लगी राजपूतों की चिंता के दो प्रमुख कारण थे मुगल साम्राज्य के पतन स्थिति का लाभ उठाकर राजपूत शासक अपने-अपने राज्यों की सीमाओं का विस्तार करने की अपेक्षा रखते थे बाजीराव की प्रसार नीति के फलस्वरूप उनकी आशाओं पर पानी फिर सकता था यह स्वभाविक था कि गुजरात मालवा पर नियंत्रण स्थापित करने तथा दिल्ली तक जाने की इच्छा रखने वाले मराठा मार्ग पर स्थित  राजस्थान के भाग को भी अपना प्रभाव में लाना चाहते थे। सवाई जयसिंह ने अपनी प्रथम सुबेदारी काल में मराठों को मालवा से निकालने के लिए उनके विरुद्ध सैनिक अभियान की ।1729 में सवाई जयसिंह ने मालवा का सूबेदार नियुक्त किया गया   सवाई जयसिंह ने अनुभव किया कि   शांति और व्यवस्था को बनाए रखने के लिए मेवाड़ उपलब्ध हो जाए तो अच्छा रहेगा महाराणा संग्राम सिंह व सवाई जयसिंह  दोनों के मध्य समझौता संपन्न हुआ समझोता तो हो गया परंतु उनको क्रियान्वित किया जा सके उससे पहले ही मराठा मालवा में आ गए।  सवाई जयसिंह ने मराठों पर जोरदार आक्रमण किया और मराठों को पीछे धकेल दिया लेकिन अचानक सवाई जयसिंह को चारों तरफ से घेर लिया  इस बार मराठों को ₹600000 नगद तथा मालवा की 58 परगणों की वसूली देना स्वीकार करना पड़ा ।                                                      


इस समय राजस्थान में पारिवारिक कलह के  केन्द्र मुख्य तीन केंद्र थे बूंदी, जयपुर और जोधपुर।                                  



संघर्ष का मुख्य कारण से आसन के लिए 2 उम्मीदवारों का आपसी झगड़ा था राजपूताना में मराठों का प्रवेश पहले तो भाड़े के सैनिक के रूप में हुआ बाद में चौथ वसूली करने वाले तथा लूटमार करने वाले के रूप में हुआ।                              


बूंदी उत्तराधिकार संघर्ष                                              



बूंदी का राजा बुद्धसिंह जय सिंह का बहनोई था दोनों के संबंध तनावपूर्ण थे महाराजा बुद्धसिंह जय सिंह की बहन से घृणा  करने लगा अपनी चूड़ावती रानी की इशारे पर काम करने लगा कुछ ही दिनों बाद बुद्धसिंह ने  कच्छवाहा रानी से उत्पन्न पुत्र भवानी सिंह को अपना पुत्र मानने से इनकार कर दिया जयसिंह से यह कह दिया कि वह कच्छवाहा रानी के निकट कभी गया ही नहीं यह सन्तान अवैध है उससे बुध सिंह को सिंहासन पर से अलग करने का निश्चय लिया । जयसिंह ने करवड के जागीरदार  सालीम सिंह के पुत्र दलेल सिंह को बूंदी की गद्दी पर बैठा दिया वो मूगलो से शासन की स्वीकृति प्राप्त कर ली। 2 वर्ष बाद 1732 मे जयसिंह ने अपनी पुत्री का विवाह दलेल सिंह के साथ दिया कच्छवाहा रानी भवानी सिंह को सिंहासन पर बैठाना चाहती थी। जय सिंह के इसारे से भवानी सिंह को मरवा दिया गया तभी कच्छवाहा रानी जयसिंह से बुरी तरह नाराज हो गई।                                  


1730 में बुद्धसिंह की मृत्यु हो गई परंतु कच्छवाहा रानी ने अब उम्मेदसिंह को शासक बनाने लगी। उन्होंने प्रताप सिंह को मराठा सहायता  प्राप्त करने के लिए भेजा गया है 18 अप्रैल1734 को मल्हार राव होल्कर व सिन्धिया ने आक्रमण कर उम्मेदसिंह को शासक बनाया।  लेकिन बाद में जयसिंह ने बूंदी पर अधिकार कर दिया जय सिंह के जीवन काल में बूदी पर हस्तक्षेप नहीं किया                                                 

इसके बाद तो राजपूत शासकों से सैनिक सहायता प्राप्त करने को लालायित होते राजपूतों ने आपसी संघर्ष में मराठों द्वारा सहायता देने का मुख्य से अधिक धन प्राप्त करना था दो पक्षों की आपसी संघर्ष में यदि एक  मराठा सरदार एक पक्ष का समर्थन करता तो दूसरा विरोधी पक्ष का समर्थन करने लग जाता कभी-कभी तो एक ही मराठा सरदार पहले और बाद में उसके विरोधी का समर्थन भी कर सकता था प्रश्न केवल इतना है कि मराठों की सेवाओं का अधिक मूल्य कौन दे रहा है इस प्रकार मराठे आरंभ ने भाड़े सैनिक सहयोगी के रुप में राजस्थान में आए और धीरे-धीरे वे प्रांतों के सर्वे सर्वा बन गए।      


                   हुरड़ा सम्मेलन                                                            


           मराठों को मालवा से निकालने के लिए मेवाड़ के महाराणा संग्राम सिंह ने शाहू के पास अपना प्रतिनिधि भेजकर बातचीत द्वारा समस्या को हल करने के कई प्रयत्न किए थे किंतु सभी प्रयत्न असफल रहे मराठों को ₹500000 देकर मालवा खाली कराना चाहा किंतु धन लेकर भी मराठा मालवा को छोड़ने को तैयार नहीं हुए इस प्रकार राजस्थान के सीमावर्ती क्षेत्रों से मराठों को निकालने हेतु राजपूतों की सामधाम की नीतियां असफल हो चुकी थी मराठों का सफलतापूर्वक सामना कर सकने कोई आवश्यक उपाय सोच निकालने के लिए सवाई जयसिंह ने राजस्थान के सारे शासकों को हुरडा जो वर्तमान में भीलवाड़ा में है सम्मेलन का आयोजन किया।               

      16 जुलाई 1734 ईस्वी को पूर्व निश्चित स्थान हुरड़ा में सम्मेलन आरंभ हुआ जिसकी अध्यक्षता मेवाड़ के महाराणा जगतसिंह ने की। सम्मेलन में सवाई जय सिंह के अलावा जोधपुर का अभय सिंह, नागौर का बख्त सिंह ,बीकानेर का जोरावर सिंह ,कोटा का दुर्जन साल ,बूंदी का दलेलसिंह करौली का गोपाल दास ,किशनगढ़ का राज सिंह आदि राजपूताना के सारे छोटे बड़े नरेश उपस्थित हुए अभय सिंह द्वारा लगवाए गए एक बड़े शामियाने में आयोजन आरंभ हुआ काफी विचार विमर्श के बाद 17 जुलाई को सभी उपस्थित शासकों ने एक अहदनामे  पर हस्ताक्षर कर दिए समझौते के अनुसार सभी शासक एकता बनाए रखेंगे। एक का अपमान सभी का अपमान समझा जाएगा। कोई राज्य दूसरे राज्य के विद्रोही को अपने राज्य में शरण नहीं देगा। मराठों के विरुद्ध वर्षा ऋतु के बाद कार्रवाई आरंभ की जाएगी। जिसके लिए सभी शासक अपनी सेनाओं के साथ रामपुरा में एकत्रित होंगे। और यदि कोई शासक किसी कारणवश उपस्थित होने में असमर्थ होगा तो वह अपने पुत्र अथवा भाई को भेजेगा। हुरड़ा सम्मेलन में मराठों के कारण उत्पन्न स्थिति पर सभी शासकों द्वारा विचार विमर्श करना और सामूहिक रूप से शुरुआत सम्मत निर्णय लेना इतिहास में एक महत्वपूर्ण घटना थी क्योंकि इन राजपूत शासकों का इतना घोर नैतिक पतन हो चुका था और वे ऐश्वर्य विलास में इतने डूबे हुए थे कि अपने आपसी जातीय झगड़ों को भूल कर अपने नैतिक व्यक्तिगत  लाभ को छोड़ना और अपनी शारीरिक सुख का त्याग कर विपत्ति से बचने के लिए संगठित होकर मराठों का सामना करना उनके लिए असंभव था                               


      राजपूत शासक हुरडा सम्मेलन के समझौते के अनुसार मराठों के विरुद्ध कोई कार्रवाई नहीं कर सके हालांकि राणा सांगा के बाद यह पहला अवसर था जब राजपूत शासक सामूहिक समस्या के लिए एक जगह एकत्रित हुए यूं तो हुरड़ा सम्मेलन ऐतिहासिक था लेकिन यह कोई इतिहास नहीं बना सका। राजस्थानी शासकों में सवाई जयसिंह सर्वाधिक योग्य था किंतु जय सिंह महाराणा जगतसिंह से सहमत नहीं था कोई भी शासक सार्वजनिक हित के लिए अपने स्वार्थों को त्यागने के लिए तैयार नहीं था संभवतः इसीलिए 1734  की वर्षा ऋतु के बाद राजपूत शासकों ने रामपुरा में एकत्रित होने के बजाय मुगल सरकार द्वारा आयोजित मराठों के विरुद्ध अभियान में सम्मिलित होना अधिक लाभप्रद समझा इस समय दिल्ली में इस अभियान की तैयारी जोर शोर से चल रही थी 

इसी समय पेशवा बाजीराव की मां राधाबाई उत्तर भारत के तीर्थ स्थानों की यात्रा करने आई थी वह जिन राजपूत राज्यों की राजधानी में गई वहां उनका भव्य स्वागत व सम्मान का पूरा प्रबंध किया गया ।राजस्थान में राधाबाई के आदर सत्कार से मराठे बहुत संतुष्ट हुए इसके बाद जयसिंह की सहायता का आश्वासन मिलते ही पेशवा ने राजस्थान में जाकर प्रत्येक राजपूत शासक से चौथ के संबंध में शांतिपूर्ण समझौता करने का निश्चय किया 17 अक्टूबर 1735 ईस्वी में शासन ने पुणे से रवाना हुआ जनवरी 17 36 ईस्वी में  उदयपुर पहुंचा तत्पश्चात पेशवा बाजीराव और सवाई जयसिंह की भेंट धौलपुर में हुई।

        18 मई 1741 तक पेशवा धौलपुर में ही रहा जयसिंह से समझौते की बातचीत की अंत में दोनों के बीच एक समझौता हुआ जिसकी मुख्य शर्ते निम्नलिखित है।                      

धौलपुर समझौता 1741 ईस्वी

1.पेशवा को मालवा की सूबेदारी दे दी जाएगी किंतु पेशवा को यह वायदा करना होगा कि मराठा मुगल क्षेत्रों में उपद्रव  नहीं करेंगे।                                                                

2.पेशवा 500 सैनिक बादशाह की सेवा में रखिएगा और आवश्यकता पड़ने पर पेशवा 4000सवार और बादशाह की सेवा में भेजेगा जिसका खर्च मुगल सरकार देगी              

3.पेशवा को चंबल के पूर्व व दक्षिण  के जमीदारों से नजराना व पेशकश लेने का अधिकार होगा                                

4.पेशवा बादशाह को एक पत्र लिखेगा जिसमें बादशाह के प्रति वफादारी और मुगल सेवा स्वीकार करने का उल्लेख होगा 

5.सिंधिया और होल्कर भी यह लिख कर देंगे कि यदि पेशवा बादशाह के प्रति वफादारी से विमुख हो जाता है तो वे पेशवा का साथ छोड़ देंगे                                                     

6.भविष्य में मराठे बादशाह से धन की कोई नई मांग नहीं करेंगे                                                                        

सवाई जयसिंह की सलाह से बादशाह ने 4 जुलाई 1741 ईस्वी को उक्त समझौते के आधार पर फरमान जारी कर दिया जिससे बादशाह की मान प्रतिष्ठा में बनी रही और शाही समर्पण भी छिपा रहा                                                 




जयपुर का उत्तराधिकारी संघर्ष                                     


सवाई जयसिंह की खींची रानी सूरज कंवर ने एक पुत्र ईश्वर सिंह को जन्म दिया जो जयपुर राज्य का उत्तराधिकारी था मेवाड़ की  राजकुमारी से विवाह  करते समय जयसिंह ने यह वादा किया कि यदि कोई पुत्र उत्पन्न होता है तो उसे जयपुर का आधा राज्य मिलेगा मेवाड़ की राजकुमारी चंद्रकुवर से 1 पुत्र माधो सिंह उत्पन्न हुआ जय सिंह के बाद माधो सिंह और ईश्वर सिंह के बीच उत्तराधिकारी का संघर्ष निश्चित हो गया सितंबर 1743  में सवाई जय सिंह की मृत्यु के बाद उनका जेष्ठ पुत्र ईश्वर सिंह गद्दी पर बैठा किंतु माधो सिंह केवल रामपुरा लेकर संतुष्ट होने वालों में नहीं था इस प्रकार ईश्वर सिंह व माधोसिंह में गृह कलह आरंभ हो गई इसके लिए जयपुर में एक कहावत प्रचलित है महाराणा माधो सिंह द्वारा जो आधा चाहता है लेकिन ईश्वर सिंह उसे एक बटा चार भी नहीं देना चाहता वह तो पूरे पर यदि अधिकार रखना चाहता है महाराणा जगतसिंह, बूंदी के राव राजा बुध सिंह का पुत्र उम्मेद सिंह ,कोटा का महाराव दूर्जनसाल भी माधो सिंह के गुट में शामिल हो गए दोनों पक्षों की ओर से मराठों से सहायता प्राप्त करने का प्रयत्न आरंभ हो गए माधो सिंह की ओर से मल्हार राव होल्कर से सैनिक सहायता प्राप्त की गई इसके बदले में होल्कर को 2000000 रुपए देने का आश्वासन दिया उधर ईश्वर सिंह सिंह ने राणा जी सिंधिया से सहायता प्राप्त कर ली फलस्वरूप 1 मार्च 1747 को दोनों पक्षों के बीच राजमहल का युद्ध हुआ राजमहल के युद्ध में ईश्वर सिंह विजय हुआ बाद में दिल्ली से लौटते समय पेशवा जयपुर पहुंचा और दोनों भाइयों से समझौता कराने का प्रयास किया टोंक मालपुरा और निवाई व चौथ का बरवाड़ा ईश्वर सिंह से दिलवा देने की शर्त पर माधो सिंह मराठों को ₹1000000 देने पर राजी हो गया किंतु ईश्वर सिंह कोई शर्त मान्य नहीं हुई बगरू नामक स्थान पर मराठों के साथ ईश्वर सिंह की मुठभेड़ हुई 6 दिन के युद्ध में ईश्वर सिंह पराजित हुआ बगरू के युद्ध के बाद ईश्वर सिंह ने जो रुपए मराठा सरदार को देने का वायदा किया था उसे नहीं दे पाया पेशवा के आदेश अनुसार मल्हार राव होल्कर, गंगाधर त्तात्या के सेनापतित्व मे जयपुर पर चढ़ाई कर दी इसकी सूचना ईश्वर सिंह को मिली तो बहुत निराश हुआ क्योंकि मराठों को देने के लिए उसके पास कुछ नहीं था तब निराश होकर राजप्रसाद के ईश्वर लाट से अर्धरात्रि के समय 13 दिसंबर 1750 को उसने आत्महत्या कर सारे राजनीतिक जजालों से अपना पिंड छुड़ा लिया।                          

     होल्कर ने माधो सिंह को बुलाकर 2 जनवरी 1751  को जयपुर की गद्दी पर बैठा दिया माधो सिंह ने उसे ₹10 लाख दिया लेकिन अब मराठा सरदार ने नई मांग शुरू कर दी कम से कम जयपुर राज्य का चतुर्थश दिया जाए।                         

  10 जनवरी 1751को लगभग 4 हजार मराठो ने नागरिकों को मारना शुरू कर दिया तो नागरिकों ने मराठों पर हमला कर मार डाला केवल 70 सैनिकों जान बचाकर भागे। मराठो की सम्पत्ति  लूट ली गई ।राजस्थान की राजनीति में राजपूताना मराठा संघर्ष की एक नई उलझन शुरू करने के साथ-साथ राजस्थान के लिए भी घातक प्रमाणित हुई।                       


जोधपुर में उत्तराधिकारी संघर्ष                                         


जोधपुर महाराज अभय सिंह को बख्त सिंह गद्दी से हटाकर जोधपुर का शासक बनना चाहता था 1735 मे सिंधिया व मल्हार राव होल्कर ने जोधपुर पर आक्रमण कर दिया 1749 मे अभयसिंह की मृत्यु के बाद उसका पुत्र रामसिंह जोधपुर की गद्दी पर बैठा बख्त सिंह ने राम सिंह को पराजित कर जोधपुर व अजमेर पर अधिकार कर लिया तो विरोध करने के लिए मराठों को एक नया कारण मिल गया क्योंकि मराठे  अजमेर पर अधिकार करना चाहते थे 1752 को बख्त  सिंह की मृत्यु हो गई तो उनका पुत्र विजय सिंह जोधपुर की गद्दी पर बैठा रघुनाथ राव ने राम सिंह को गद्दी पर बैठाने के लिए जयप्पा सिंधिया को जोधपुर पर आक्रमण करने के लिए भेजा जिसमें विजय सिंह परास्त होकर नागौर की ओर भागा हुआ नागौर दुर्ग में शरण ली 1755 में जयप्पा  की हत्या करवा दी विजय सिंह की स्थिति दयनीय हो गई तब मराठों की सारी शर्तें माननी पड़ी और अजमेर को मराठों ने अपने अधिकार में ले लिया और मारवाड़ का आधा राज्य राम सिंह को देना स्वीकार करना पड़ा और हर्जाने के रूप में ₹5000000 मराठों को देने का भी वादा करना पड़ा                                                



मेवाड़ का उत्तराधिकारी संघर्ष                                     

मेवाड़ के पड़ोसी प्रांत मालवा में मराठों का प्रवेश हो जाने से मेवाड़ की सुरक्षा को खतरा उत्पन्न हो गया था पेशवा अक्टूबर 1735 ईस्वी में उत्तर भारत की ओर आया और उदयपुर पहुंचा महाराणा ने पहली बार मराठों को चौथ देना स्वीकार किया 1741 धौलपुर समझौते के बाद शाही फरमान द्वारा मालवा मराठों का ब्रांच हो गया महाराणा राज सिंह की निसंतान मृत्यु होने के बाद अरी सिंह मेवाड़ की गद्दी पर बैठा लेकिन उसके क्रोधी स्वभाव के कारण मेवाड़ के अनेक सामंत उससे क्रुद्ध हो गए महाराणा राज सिंह के मरणोपरांत उनके पुत्र रतन सिंह को मेवाड़ की गद्दी का दावेदार खड़ा कर दिया दोनों पक्षों ने मराठों की सहायता प्राप्त करने का प्रयत्न किया महाराज आरीसिह के पक्ष में मराठों को 2000000 रुपए देने का वायदा किया गया लेकिन रतन सिंह के पक्ष वालों ने रतन सिंह मेवाड़ की गद्दी पर बैठने की पर मराठों को ₹5000000 तथा मराठों को बकाया राशि भी देने का वायदा किया गया 16 जनवरी 1769 को शिप्रा नदी के किनारे दोनों पक्षों में युद्ध हुआ महादेवी ने अपने विरोधियों को पराजित किया और  अड़सी सामंतों ने सिंधिया को कहलवाया कि यदि वह रतन सिंह को गद्दी पर बैठाना चाहते है उससे रुपया ले वरना हम देने को तैयार हैं ।तो सिन्धिया ने रतन सिंह के समर्थकों से रुपया मांगा लेकिन  वे टालम टोली करने लगे जब सिंधिया को रतन सिंह के पक्ष में रुपए मिलने की कोई आशा नहीं रही तब 21 जुलाई 1769 को महाराणा से संधि कर ली ।संधि के अनुसार सिंधिया को 60, लाख रुपए खर्च व3.50लाख दफ्तर खर्च का देना तय हुआ इसके अतिरिक्त रतन सिंह को मंदसौर का परगना  देना तय किया। अपनों को नियंत्रण में रखने के लिए महादजी की सहायता की याचना करनी पड़ी       

राजस्थान में उपर्युक्त प्रमुख राज्यों के साथ साथ सभी राज्यों में मराठो का प्रवेश आरंभ हो गए केवल बीकानेर जैसलमेर किशनगढ़ मराठों की लूटमार से बचें रहे। संपूर्ण राजस्थान पर धीरे-धीरे मराठों का वर्चस्व स्थापित हो गया कोटा के दीवान झाला जालीम सिंह ने तो मराठी तुष्टीकरण नीति अपनानी पड़ी। खण्डणी जागीर देकर कोटा राज्य  की रक्षा की  राजस्थान मे इस प्रकार बूंदी के कारणों से मराठा का प्रवेश प्रारंभ हुआ  फिर प्रतिवर्ष राजस्थान पर मराठों ने आक्रमण शुरू कर दिए।

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