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राजस्थान का परमार राजवंश

राजस्थान का परमार राजवंश

परमार का शाब्दिक अर्थ शत्रु को मारने वाला होता है प्रारंभ में न परमार आबू के आसपास ही शासन करते थे बाद में जब प्रतिहारों की शक्ति का ह्रास हुआ तो परमारो की राजनीतिक शक्ति का उत्थान हुआ

चंद्रवरदाई के पृथ्वीराज रासो में परमारो की उत्पत्ति आबू के ऋषि वशिष्ठ के अग्निकुंड से बताई गई है उदयपुर प्रशस्ति, पिंगल सूत्रवृत्ति ,तेजपाल अभिलेख में प्रमाणों को ब्रह्मा कुलीन बताया गया परमारो में आबू के परमार ,मारवाड़ के परमार , सिंध परमार ,गुजरात के परमार ,बागड़ के परमार मालवा के परमार आदि शाखाएं हुई जिसमें से आबू के परमार व मालवा के परमार ज्यादा महत्वपूर्ण थे परमार वंश का प्राचीनतम ज्ञात सदस्य उपेंद्र कृष्णराज है

परमार वंश के प्रारंभिक शासक दक्षिण के राष्ट्रकूट के सामंत थे परमार वंश की कुलदेवी कालिका माता है परमार अपने हर लड़के के जन्म पर मुन्डन बूसी गांव पाली स्थित हनुमान जी के मंदिर में करते हैं

आबू के परमार 


आबू के परमार वंश का संस्थापक धूमराज था लेकिन इनकी वंशावली उत्पलराज से आरंभ होती है आबू के परमारो की राजधानी चंद्रावती सिरोही थी सिंधराज परमार एक प्रतापी शासक हुआ जो मरूमंडल का महाराज कहलाया था पड़ोसी होने के कारण आबू के परमारो का गुजरात के साथ  सतत संघर्ष चलता रहता था


धरणीवराह

गुजरात के मूलराज सोलंकी से पराजित होने के कारण आबू के शासक धरणीवराह को राष्ट्रकूट धवल की शरण लेनी पड़ी लेकिन कुछ समय बाद धरणीवराह ने आबू पर अपना अधिकार कर लिया

महिपाल

1002 ई में धरणीवराह के पुत्र महिपाल का आबू पर अधिकार प्रमाणित होता है इस समय आबू के परमारो ने गुजरात के सोलंकीयों की अधीनता स्वीकार कर ली

धन्धुक परमार

महिपाल के पुत्र धन्धुक परमार अगला परमार शासक हुआ इसमें सोलंकीयो की अधीनता से मुक्त होने का प्रयास किया आबू पर सोलंकी शासक भीमदेव ने आक्रमण किया धन्धुक आबू छोड़कर भोज की  शरण में चला गया सोलंकी ने विमल शाह को आबू का प्रशासक नियुक्त किया बाद में विमल शाह ने भीमदेव व  धन्धुक के मध्य पुन मेल करवाया विमल शाह ने 1031 ईस्वी में देलवाड़ा में भगवान आदिनाथ का एक भव्य मंदिर बनाया जो विमल साही जैन मंदिर के नाम से प्रसिद्ध है धन्धुक  की विधवा पुत्री ने बसंतगढ़ में सूर्य मंदिर का व सरस्वती बावड़ी का जीर्णोद्धार करवाया

कृष्ण देव

इन के शासनकाल में 1060 ईस्वी परमार व सोलकियों के मध्य संबंध बिगड़ गए लेकिन नाडोल के चौहान शासक बाला प्रसाद ने में पुनः मित्रता करवाई

विक्रम देव

कृष्ण देव के पुत्र विक्रम देव ने महामंडलेश्वर की उपाधि धारण की

धारावर्ष परमार

यह विक्रम देव का पड़पोत्र था धारावर्ष  परमार शासकों में सबसे शक्तिशाली शासक हुआ उसने 56 वर्षों तक शासन किया इसने मोहम्मद गौरी के विरुद्ध युद्ध में गुजरात की सेना का सेनापतित्व किया वह गुजरात के चार सोलंकी शासको कुमारपाल ,अजय पाल , मूलराज व भीमदेव का समकालीन था उसने  सोलंकी शासकों की अधिनता से आबू को स्वतंत्र कर लिया उसने नाडोल के चौहानों से भी अच्छे संबंध बनाए रखें
आबू के अचलेश्वर मे बने मंदाकिनी कुण्ड  के पास बने धारावर्ष की मूर्ति और आर पार तीन भैंसों की प्रतिमाएं उनकी  पराक्रम की कहानी कहते हैं कहा जाता है कि धारावर्ष एक तीर से 3-3 भैंसों को बेध डालता था धारा वर्ष के छोटे भाई प्रहलादन ने पालनपुर नगर बसाया तथा पार्थ पराक्रम व्यायोम नामक नाटक की रचना की धारावर्ष के दरबारी कवि सोमेश्वर ने कीर्ति कौमुदी की रचना की
 

सोम सिंह

धारावर्ष के पुत्र सोम सिंह परमार का सोलंकियों के साथ संघर्ष हुआ सोम सिंह के शासनकाल में चालूक्य राजा धवल के मंत्री वास्तुपाल व तेजपाल द्वारा  देलवाड़ा नामक ग्राम में भगवान नेमिनाथ का मंदिर बनवाया गया जिसे लूवणशाही मंदिर या वास्तुपाल तेजपाल मंदिर कहते हैं यह मंदिर सोम सिंह ने अपने पुत्र लूवणसही व पत्नी अनुपमा देवी के लिए बनवाया 1311 इसी के आसपास जालौर के राव लूम्बा ने परमारो से चंद्रावती छीन ली यही से परमार वंश के शासन का अंत हो गया इनके बाद प्रताप सिंह, विक्रम सिंह आबू के शासक बने

Jalore ke Parmar

जालौर के परमारों का शासन 10 वीं सदी से प्रारंभ माना जाता है संभवत है यह आबू के परमारों की एक शाखा है जालौर से प्राप्त शिलालेख 1087 ई से जालौर के परमारों के सात शासकों वाक्पतिराज, चंदन, देवराज, अपराजित, विज्जल, धारावर्ष एवं वीसल के बारे में जानकारी मिलती है इस शाखा के वाक्पतिराज ने 960 से 985 ईसवी तक जालौर पर राज्य किया इस वंश के सातवे राजा वीसल की रानी मेलर देवी ने सिंधुराजेश्वर के मंदिर पर 1087 ईस्वी में श्रवण कलश चढा़या था


मालवा के परमार


मालवा के परमारो का मूल उत्पत्ति स्थान भी आबू है इनकी राजधानी उज्जैन या धारा नगरी रही मगर राजस्थान के कई भूभाग कोटा राज्य का दक्षिणी भाग झालावाड़ ,वागड़, प्रतापगढ़ का पूर्वी भाग अधीन के अधिकार क्षेत्र में थे
मूंज परमार मालवा के परमार शासकों में सबसे शक्तिशाली शासक  हुआ यह सीपाक  का पुत्र था वाक्पतिराज, अमोघवर्ष, उत्पलराज, पृथ्वी वल्लभ, श्रीवल्लभ आदी इनके विरुद्ध थे मूंज परमार वंश की महानता का संस्थापक कहा जाता है इसने राजपूताना के दक्षिणी भाग बांसवाड़ा जालौर किराडू पर 997 ईस्वी में अधिकार कर लिया था

वाक्पति मूंज ने मेवाड़ के शासक शक्तिकुमार के शासनकाल में उसने आहाड़ को नष्ट किया तथा चित्तौड़ दुर्ग पर अधिकार कर लिया गूहिलो को मूल प्रांत चित्तौड़ छोड़ना पड़ा

उसने चालूक्य शासक तैलप द्वितीय को 6 बार पराजित किया मगर सातवी  बार उसे पराजित हुआ और मारा गया
राजा मूंज को कवी वृष भी कहा जाता है इन के दरबारी कवि पदमगुप्त ने नवसहसाक चरित की रचना की और हलायुद्ध ने अभिदानमाला की रचना की


भोज परमार

भोज अपनी विजयों और विद्यानुराग के लिए प्रसिद्ध था भोज ने सरस्वती कंठावरण, राजमृगाक ,विदजनमंडल, समरांगण, श्रृंगारमंजरीकथा , कूर्म शतक आदि ग्रंथ लिखे

भोज ने चित्तौड़ दुर्ग में त्रिभुवन नारायण का प्रसिद्ध शिव मंदिर का बनवाया बाद में 1428 ईस्वी में महाराणा मोकल ने इनका जीर्णोद्वार करवाया इसलिए इसे मोकल जी का मंदिर भी कहा जाता है

कुंभलगढ़ प्रशस्ति के अनुसार नागदा में भोज सर का निर्माण भी  भोज ने करवाया उसने सरस्वती कंठाभरण नामक पाठशाला  बनवाई उनके दरबार में वल्लभ ,मेरूतुग, वररुचि सुबन्धु, अमर, राजशेखर ,माघ, धनपाल, मानतुंग आदि रहते थे

 

जय सिंह

भोज का उत्तराधिकारी जयसिंह भी एक योग्य शासक था वागड़ का राजा मंडलीक उनका सामन्त था 1135 ईस्वी के लगभग मालवा पर चालूक्य शासक सिद्वराज ने अधिकार कर लिया और परमारो की शक्ति का ह्रास हो गया

तेहरवी शताब्दी में अर्जुन वर्मा के समय मालवा पर पुनः परमारो का आधिपत्य स्थापित हो गया मगर यह अल्पकालीन था खिलजियों के आक्रमण से मालवा के वैभव को नष्ट कर दिया और परमार भागकर अजमेर चले गए।


वागड़ के परमार

वागड़ के परमार मालवा के परमार कृष्णराज के दूसरे पुत्र डंवर सिंह के वंशज थे इनके अधिकार में डूंगरपुर बांसवाड़ा का राज्य था जिसे वागड़ कहा जाता था इनकी राजधानी अर्थुणा  थी

मंडलीक

इसने 1059 में पाणाहेड़ा में मंडलीश्वर शिव मंदिर का निर्माण करवाया
 

चामुंण्डराज

चामुंण्डराज ने 1079 ई में अर्थुना में मंडलेश्वर महादेव का मंदिर का निर्माण करवाया अर्थुना के शिव मंदिर की प्रशस्ति में वागड़ के परमार शासकों का अच्छा वर्णन मिलता है इस वंश के शासकों में धनिक, कंक देव ,सत्यराज, मंडलीक ,चामुंण्डराज , विजय राज आदि थे  इस शाखा का अंतिम शासक विजय राज था लगभग 1179 ई  में गुहिल नरेश सामंत सिंह ने वागड़ पर अधिकार कर इस राज्य पर परमारो के शासन को ही समाप्त कर दिया अर्थुना में परमार शासकों द्वारा कराए गए निर्माणों के खंडहर आज भी मौजूद है

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