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अधिगम के सिद्धांत संज्ञानात्मक विकास की जीन पियाजे की अवधारणाTheory of Cognitive Development

संज्ञानात्मक विकास की ज्यां पियाजे की अवधारणा

पियाजे का जन्म 1896 ईस्वी में स्विस में हुआ पिया जी ने बच्चों की सोच के विकास का विस्तार से अध्ययन किया पियाजे के अनुसार मानव शिशु शुरुआत में संज्ञानी जीव नहीं होते इसकी बजाय अपनी बोधात्मक और गत्यात्मक गतिविधियों के द्वारा मनोवैज्ञानिक ढांचे से अनुभवों से सीखने के संगठित तरीके जिसके द्वारा बच्चे ज्यादा प्रभावशाली ढंग से खुद को अपने पर्यावरण के अनुकूल डाल पाते हैं बनाते हैं और निखारते हैं

इन ढ़ाचो को विकसित करते समय बच्चे बहुत गहन रूप से सक्रिय रहते हैं वे अनुभवों के मौजूदा ढ़ाचो का उपयोग करते हुए उनका चुनाव करते हैं और अर्थ निकालते हैं तथा वास्तविकता के बारीक पक्षों को ग्रहण करने के लिए ढ़ाचो में बदलाव करते हैं

क्योंकि पियाजे का मानना है कि बच्चे उसकी दुनिया के लगभग समस्त ज्ञान को उसकी अपनी गतिविधियों के द्वारा खोजते और निर्मित करते हैं अतः पियाजे के सिद्धांत को संज्ञानात्मक विकास तक ले जाने वाला रचनात्मक मार्ग कहा जाता है

संज्ञानात्मक विकास की पियाजे की अवधारणा

संज्ञानात्मक विकास से संबंधित पियाजे के संप्रत्यय

       स्कीमा-

मनोवैज्ञानिक सिद्धांतों के अनुसार मानव विकास के तीन पक्ष है

जैविक परिपक्वता

भौतिक पर्यावरण के द्वारा अनुभव

सामाजिक पर्यावरण के द्वारा अनुभव

इन तीनों पक्ष सोम में समन्वय करने वाली स्वचालित विकास प्रक्रिया को संतुलितकरण या स्कीमा कहा जाता है।
      अनुकूलन-
व्यक्ति अपने आसपास के परिवेश के साथ अनुकूलन करता है जिसके लिए वह निम्न दो प्रक्रियाएं अपनाता है

सात्मीकरण-
पुराने विचारों तथा क्रियाओं में नए विचारों में अनुक्रियाओं का समावेश करना सात्मीकरण है इन अवस्था में पूर्व स्थापित ढंग से नई परिस्थितियों से अनुकूलन स्थापित किया जाता है

संधानीकरण-
अपने पुराने विचारों अनुक्रियाओं का नए विचारों व अनुक्रियाओं में समावेश करना संधानीकरण है इस अवस्था में नई परिस्थिति में बालक अपना व्यवहार परिवर्तित करता है।
पियाजे के संज्ञानात्मक विकास की अवस्थाओं के बुनियादी लक्षण




पियाजे का मानना है कि बच्चे चार चरणों से होकर गुजरते हैं जो निम्नलिखित हैं



संवेदी क्रियात्मक अवस्था-जन्म से 2 वर्ष तक




जीवन के पहले 2 वर्षों तक से संवेदी क्रियात्मक अवस्था रहती है
इसका नाम पियाजे की इस धारणा का द्योतक है कि शिशु और चलना शुरू वाले बालक अपनी आंखों कानों हाथों और अन्य सवेंदी क्रियात्मक उपकरणों से सोचते हैं
वे अभी अपने दिमाग में बहुत सी मानसिक क्रिया नहीं कर पाते
पियाजे ने संवेदी क्रियात्मक अवस्थाओं को 6 उपवस्थाओं में बांटा।
पियाजे के लिए नवजात शिशु की स्वत: होने वाली क्रियाएं ही संवेदी क्रियात्मक बुद्धि की रचना करने वाली इकाइयां होती है।



पूर्व  संक्रियात्मक अवस्था(2से7वर्ष)


पियाजे के संज्ञानात्मक विकास की संवेदी क्रियात्मक अवस्था से बाद पूर्व संक्रियात्मक संक्रियात्मक अवस्था आती है इसमें मानसिक प्रतीक निर्माण प्रक्रिया में असाधारण परिवर्तन होता है जो स्पष्ट दिखाई देता है यद्यपि शिशुओं में पियाजे के सिद्धांत अनुसार सवेदी क्रियात्मक योजना से  प्रतीकात्मक योजना में हुआ परिवर्तन और आगे चलकर प्रतीकात्मक योजना में बचपन से व्यस्क आयु तक होने वाले परिवर्तन दो प्रक्रियाओं के कारण होते हैं अनुकूलन तथा व्यवस्थापन

अनुकूलन

परिवेश के साथ सीधे पारस्परिक क्रिया प्रतिक्रिया के द्वारा योजना बनाने को अनुकूलन कहते हैं इसमें दो परस्पर पूरक गतिविधियां शामिल रहते हैं समावेशीकरण तथा समायोजन समावेशीकरण के दौरान हम बाहरी संसार को समझने के लिए अपने बनी हुई योजनाओं का उपयोग करते हैं
उदाहरण के लिए जब कोई शिशु बार-बार चीजों को गिराता है तब वह है उसका अपनी संवेदी क्रियात्मक योजना में समावेश कर रहा होता है
पियाजे के अनुसार समय बीतने के साथ समावेशीकरण और संयोजन के बीच संतुलन बदलता रहता है जब बच्चों में अधिक बदलाव नहीं हो रहा होता तभी समायोजन की तुलना में समावेश अधिक करते हैं

व्यवस्थापन

व्यवस्थापन के द्वारा की योजनाएं बदलती रहती हैं यह प्रक्रिया परिवेश के साथ सीधे संपर्क से अलग हटकर आंतरिक रूप से घटती है

भाषा और विचार

पियाजे मानते हैं कि मानसिक प्रतीको में संसार को निरूपित करने का हमारा सबसे लचीला साधन भाषा है इसके माध्यम से विचारों को क्रिया से अलग करने के द्वारा सोचने की प्रक्रिया पहले से काफी अधिक सक्षम हो जाती है

खेल में स्वांग करना

बच्चों का कुछ कल्पना करके  उनका स्वांग करना अर्थात उसे हाव भाव सहित दर्साना भी प्रारंभिक बचपन में प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति के विकास का एक और बढ़िया उदाहरण है


पूर्व संक्रियात्मक अवस्था सोच की सीमाएं

पियाजे के अनुसार छोटे बच्चों में सक्रियात्मक करने की क्षमता नहीं होती
सक्रियाएं ऐसे वास्तविक क्रियाओं का मानसिक निरूपण होता जो तार्किक नियमों से चलता है

आत्मकेंद्रित या जीववादी सोच
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पियाजे के लिए पूर्व संक्रियात्मक अवस्था की सबसे बड़ी कमी जो शेष सभी दोषो का आधार है आत्मकेंद्रीयपन है अपने अलावा दूसरों के प्रतीकात्मक दृष्टिकोण को समझने में असमर्थ होना।



स्थूल मूर्त संक्रियात्मक अवस्था( 7 से 11 वर्ष)



पियाजे के अनुसार बच्चों के संज्ञानात्मक विकास में एक बड़ा मोड़ मूर्त संक्रियात्मक अवस्था में आता है जो लगभग 7 से 11 वर्ष की होती है इसमें विचार पहले की अपेक्षा अधिक तर्कसंगत लचीली व व्यवस्थित होते हैं व छोटो बच्चों के बजाय बड़ों के विचार प्रक्रिया से अधिक मिलता-जुलता है

मूर्त संक्रियात्मक विचार

संरक्षण-
संक्रियाओ का स्पष्ट प्रमाण संरक्षण के कामो को सफलतापूर्वक करने की क्षमता से मिलता है पियाजे की मूर्त संक्रियात्मक अवस्था में स्कूल आयु के बच्चे मूर्त वस्तुओं के बारे में विस्तृत और तार्किक ढंग से सोचते हैं

क्रमिकता
चीजों का उनके किसी गुण के परिमाण के हिसाब से जैसे लंबाई और वजन का निर्धारण करने की क्षमता क्रमिकता कहलाती है

बच्चों के संज्ञानात्मक विकास के लिए पियाजे ने बच्चों से अलग-अलग लंबाई वाली कुछ डंडियों को सबसे छोटी से सबसे बड़ी तक के क्रम में जमाने को कहा स्कुलपुर्व  थोड़े बड़े बच्चे डंडियों को श्रृंखला  तो बना देते हैं पर वे इस काम को बेतरतीब ढंग से करते हैं डंडियों को एक कतार में तो रखते थे पर क्रम में कई गलतियां करते हैं इसके विपरीत  7 साल के बच्चे एक क्रम बंद योजना से काम करते हैं और दक्षतापूर्वक श्रृंखला तैयार कर देते हैं।

स्थानिक सोच

पियाजे ने पाया कि स्कूल आयु के बच्चों की स्थान विस्तार की समझ स्कूल पूर्व आयु के बच्चों से अधिक सही होती है 
संज्ञानात्मक नक्शे -बच्चों द्वारा अपने परिचित बड़े स्थान जैसे अपने मोहल्ले या स्कूल के मानसिक निरूपणो को संज्ञानात्मक नक्शे कहा जाता है किसी बड़े स्थान विस्तार का नक्शा बनाने के लिए दृश्य को मानसिक रूप से ग्रहण करने में काफी अधिक कौशल की जरूरत पड़ती है क्योंकि समूचे स्थान विस्तार को एक स्थान से नहीं देखा जाता इसकी बजाय बच्चे अपने हिस्सों का आपस में संबंध जोड़ कर पूछ पूरे स्थान विस्तार की कल्पना कर सकते हैं।


औपचारिक संक्रियात्मक अवस्था



पियाजे के संज्ञानात्मक विकास की चौथी अवस्था औपचारिक संक्रियात्मक अवस्था है जो 11 वर्ष की उम्र से शुरू होती है इस अवस्था में वे अमूर्त वैज्ञानिक ढंग से सोचने की क्षमता विकसित करते हैं जहां मूर्त सक्रिया अवस्था में बच्चे वास्तविक संसार के साथ क्रियाएं करते हैं वही औपचारिक संक्रिया अवस्था में किशोर क्रियाओं के साथ सक्रिया करते हैं दूसरे शब्दों में विचार करने के लिए अब उन्हें बाहर की मूर्त वस्तुओं और घटनाओं की जरूरत नहीं रह जाती बल्कि वे आंतरिक चिंतन करके नए और अधिक तार्किक नियम गढ़ने में समर्थ हो जाते हैं

परिकाल्पनिक निगमित तर्क-


किशोरावस्था में लोग परिकाल्पनिक नियमित ढंग से विचार करने में समर्थ हो जाते हैं जब उसके सामने कोई समस्या आती है तो वे परिणाम दे सकने वाले सभी संभव कारकों के एक सामान्य सिद्धांत से प्रारंभ करते हैं और उससे संभावित घटनाओं के बारे में विशेष परिकल्पनाएं निकालते हैं फिर वे उन परिकल्पना का यह देखने के लिए व्यवस्थित परीक्षण करते हैं कि उनमें से कौन सी वास्तविक संसार में काम करती है


प्रस्थापनात्मक सोच-


औपचारिक सक्रिया अवस्था का दूसरा महत्वपूर्ण लक्षण प्रस्थापनात्मक  सोच है किशोर वास्तविक संसार की परिस्थितियों का सहारा लिए बिना शाब्दिक वक्तव्यों के तर्क का मूल्यांकन कर सकते हैं इसके विपरीत बच्चे वक्तव्यों पर वास्तविक संसार में मिलने वाले प्रमाणों के संदर्भ में विचार करके ही उसके तर्क का मूल्यांकन कर सकते हैं।


संज्ञानात्मक विकास की संज्ञानात्मक प्रक्रियाएं

संज्ञानात्मक प्रक्रिया वे हैं जिसके कारण व्यक्ति के विचारों बुद्धि और भाषा में परिवर्तन होते हैं
उदाहरण जो कोई शिशु पालने के ऊपर लटकता हुआ खिलौना देख रहा है या थोड़ा बड़ा होकर दो शब्दों को जोड़कर छोटे वाक्य बनाता है कविता याद करता है
इसी प्रकार  किसी बिंदु पर आकर कोई बच्चा संसार के बारे में अमूर्त निराकार ढंग से सोचने में सक्षम हो जाता है जो वह पहले नहीं कर पाता था यह विकास का गुणात्मक और विछिन्न परिवर्तन है ना कि मात्रात्मक और लगातार होने वाला परिवर्तन।

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