भारत में सर्वोच्च न्यायालय का संगठन क्षेत्राधिकार व न्यायिक पुनरावलोकन
भारतीय संविधान में एकीकृत न्यायपालिका है भारत के संविधान के अनुच्छेद 124से 147 के मध्य सर्वोच्च न्यायालय की व्यवस्था की गई है जो संविधान का रक्षक है इसके साथ वह व्यक्तियों के मूल अधिकारों का ही रक्षक है एकीकृत न्याय व्यवस्था के उच्चतम स्तर पर सर्वोच्च न्यायालय है सर्वोच्च न्यायालय से संबंधित संवैधानिक प्रावधान निम्नलिखित हैं
अनुच्छेद 124
अनुच्छेद 124 में सर्वोच्च न्यायालय के संगठन न्यायाधीशों की पदावली न्यायाधीशों की शपथ के बारे में न्यायाधीशों की योग्यता उनको हटाने की प्रक्रिया व न्यायाधीशों की नियुक्ति करने की प्रक्रिया के बारे में प्रावधान किया गया
अनुच्छेद 124 में सर्वोच्च न्यायालय के संख्या संबंधी प्रावधान है संसद सामान्य बहुमत से न्यायाधीशों की संख्या निर्धारित कर सकती है तथा वर्तमान में सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की पदावली 65 वर्ष है
शपथ
सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश मुख्य न्यायाधीशों को शपथ अनुसूची तीन के अनुसार राष्ट्रपति दिलाता है
योग्यताएं
वह भारत का नागरिक होना चाहिए तथा निम्न में से किसी एक योग्यता का होना आवश्यक है
5 वर्ष तक उच्च न्यायालय का न्यायाधीश होना चाहिए
उच्च न्यायालय का 10 वर्ष तक वकील रहना चाहिए
राष्ट्रपति की राय ने विधिवेत्ता हो।
हटाने की प्रक्रिया
सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश को कदाचार व असमर्थता के आधार पर हटा सकते हैं हटाने की प्रक्रिया के लिए संसद के दोनों सदनों के दोहरे बहुमत व राष्ट्रपति के आदेश की आवश्यकता होती है
नियुक्ति
स्वतंत्रता के बाद न्यायाधीशों की नियुक्ति प्रधानमंत्री के कहने पर राष्ट्रपति करता था 1973 में न्यायधीश अजीत नाथ रे को सर्वोच्च न्यायालय का मुख्य न्यायाधीश बनाया गया इसके बाद तीन वरिष्ठ न्यायाधीश सलेट ग्रोवर व हेगड़े ने त्यागपत्र दे दिया इसी के साथ नियुक्ति संबंधी विवाद प्रारंभ हो गया
इसी प्रकार श्री एच एम बेग की नियुक्ति वरिष्ठता के आधार पर नहीं हुई जिसके विरोध में उनके वरिष्ठ न्यायधीश एचआर खन्ना ने त्यागपत्र दे दिया
1993 में एससी एडवोकेट एसोसिएशन बनाम भारत संघ में उच्चतम न्यायालय में न्यायाधीशों की नियुक्ति में मुख्य न्यायाधीश की राय को निर्णायक माना गया लेकिन 1999 में द प्रेसिडेंशियल वाद के बाद मुख्य न्यायाधीश चार वरिष्ठ न्यायाधीशों के परामर्श करके अपनी अनुशंसा राष्ट्रपति को भेजता है
1998 में न्यायाधीशों की नियुक्ति संबंधी परामर्श राष्ट्रपति ने सर्वोच्च न्यायालय से मांगा तो सर्वोच्च न्यायालय ने कॉलेजियम अपनाने की सिफारिश की
तब से लेकर आज तक यह है कॉलेजियम प्रणाली अपनाई जा रही है इस कॉलेजियम प्रणाली में चार वरिष्ठ व मुख्य न्यायाधीश होता है
99 संविधान संशोधन अधिनियम द्वारा राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग का प्रावधान किया गया था जिसे 2015 में सर्वोच्च न्यायालय ने अवैध घोषित कर दिया
वेतन और भत्ते
अनुच्छेद 125 में न्यायाधीशों के वेतन और भत्ते दिए गए हैं भारत के सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश को 280000 महीने का वेतन व अन्य देशों को 250000 महीने का वेतन मिलता है
कार्यकारी मुख्य न्यायाधीश
अनुच्छेद 126 के अनुसार अगर सर्वोच्च न्यायालय का मुख्य न्यायाधीश नहीं है तो राष्ट्रपति वरिष्ठ न्यायाधीश को कार्यकारी मुख्य न्यायाधीश नियुक्त कर सकता है
तदर्भ न्यायाधीश
अनुच्छेद 127 में इस प्रकार के न्यायाधीश की नियुक्ति गणपूर्ति के अभाव में होती है इसमें उच्च न्यायालय के न्यायाधीश को सर्वोच्च न्यायालय का न्यायाधीश बनाया जाता है तदर्भ न्यायाधीश की नियुक्ति सर्वोच्च न्यायालय का मुख्य न्यायाधीश करता है नियुक्ति करते समय वह तीन व्यक्तियों से परामर्श लेता है
राष्ट्रपति
सम्बंधित उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश
नियुक्त होने वाले न्यायधीश
विशेष न्यायाधीश
अनुच्छेद 128 के तहत कार्यभार की अधिकता के कारण विशेष न्यायाधीश की नियुक्ति सर्वोच्च न्यायालय का मुख्य न्यायाधीश करता है नियुक्ति करते समय वह राष्ट्रपति तथा रिटायर न्यायधीश से सहमति करता है अर्थात विशेष न्यायाधीश में अवकाश प्राप्त न्यायाधीश की ही नियुक्ति की जाती है
अनुच्छेद 130
इसमें यह प्रावधान है कि सर्वोच्च न्यायालय का मुख्यालय सर्वोच्च न्यायालय का मुख्य न्यायाधीश राष्ट्रपति की सहमति से भारत में कहीं भी स्थानांतरित कर सकता है
सर्वोच्च न्यायालय के क्षेत्राधिकार
अभिलेख न्यायालय
अनुच्छेद 129 सर्वोच्च न्यायालय को अभिलेख न्यायालय का दर्जा दिया गया है अभिलेख न्यायालय का दो अर्थ है सर्वोच्च न्यायालय की अवमानना के लिए दंड दे सकता है सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय रिकॉर्ड के रूप में सुरक्षित रखे जाएंगे।
प्रारंभिक क्षेत्राधिकार
अनुच्छेद 131 के तहत ऐसे विवाद जो सिर्फ सर्वोच्च न्यायालय में भी लाए जा सकते हैं जैसे केंद्र राज्य के मध्य विवाद ,2 राज्यों के मध्य विवाद, नदी जल बोर्ड ,वित्त आयोग केंद्र राज्यों के मध्य खर्चों का समायोजन ,सविधान के पूर्व की विधियां आदि को सीधे सर्वोच्च न्यायालय में लाया जा सकता है।
अपीलीय क्षेत्राधिकार
अनुच्छेद 132 के तहत सर्वोच्च न्यायालय में संवैधानिक मामलों की अपील की जा सकती है और अनुच्छेद 133 के तहत दीवानी मामलों में सर्वोच्च न्यायालय में अपील की जा सकती है अनुच्छेद 134 के तहत फौजदारी मामलों में सर्वोच्च न्यायालय में अपील की जा सकती है अनुच्छेद 135 व अनुच्छेद 136 के तहत पंथनिरपेक्षता एकता व अखंडता के आधार पर अपील की जा सकती है
पूर्व निर्णय का सिद्धांत
इसके अनुसार सर्वोच्च न्यायालय कहता है कि उच्च न्यायालय ने सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के आधार पर निर्णय दिया है तो उसके अपील की आवश्यकता नहीं है अतः रेस जुडिशियल सिद्धांत से अपिलिय क्षेत्र का अधिकार कम हुआ है
निर्णय परिवर्तन का अधिकार
अनुच्छेद 137 के अनुसार सर्वोच्च न्यायालय अपने पुर्व के निर्णय में भी परिवर्तन कर सकता है जैसे चंपाकम दोराईज 1951 के निर्णय को गोलकनाथ 1967 में बदला था तथा गोलकनाथ के निर्णय को केशवानंद भारती वाद 1973 में बदला था
यह न्यायिक पुनरावलोकन नहीं है यह रिव्यू ऑफ जजमेंट है
अनुच्छेद 141 में सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय पूरे भारत में कानून की तरह काम करेंगे
निर्णय को क्रियान्वयन की शक्ति
अनुच्छेद 142 के तहत सर्वोच्च न्यायालय अपने निर्णय को क्रियान्वयन करने की शक्ति भी रखता है जैसे भोपाल गैस कांड ,उपहार सिनेमा कांड में किया था
परामर्शदात्री या सलाहकार क्षेत्राधिकार
अनुच्छेद 143 के तहत राष्ट्रपति सर्वोच्च न्यायालय से सवैधानिक परामर्श मांग सकता है यह कनाडा के संविधान से प्रभावित है परंतु न तो सर्वोच्च न्यायालय हर मुद्दे पर परामर्श देने के लिए बाध्यकारी है और ना ही राष्ट्रपति सर्वोच्च न्यायालय की सलाह मानने के बाध्यकारी है
अवमानना पर दंडित करने का अधिकार
अनुच्छेद 144 के तहत सर्वोच्च न्यायालय अपनी अवमानना पर दंड दे सकता है।
न्यायिक पुनरावलोकन
यह न्यायालय की वह क्षमता है जिसके माध्यम से वह संसद व कार्यपालिका के कार्यों को वैध व अवैध ठहरा सकता है
न्यायिक पुनरावलोकन दो प्रकार से होते हैं भारतीय संविधान में विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया जापान के संविधान से ली गई है और विधि द्वारा उचित प्रक्रिया अमेरिका के संविधान से ली गई है
विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया
इसमें न्यायपालिका सविधान के आधार पर विधायिका और कार्यपालिका के कार्यों की समीक्षा करती है और उसे वैध व अवैध घोषित कर सकती है इसे परंपरागत न्यायिक पुनरावलोकन कहते हैं भारत में प्रारंभ से ही से अपनाया गया है
विधि द्वारा उचित प्रक्रिया
इसमें न्यायालय सविवेक या प्राकृतिक न्याय के आधार पर संसद में कार्यपालिका के कार्यों की समीक्षा करता है और उन्हें वैध व अवैध घोषित करता है इसे न्यायिक सक्रियता कहते हैं
इस प्रकार न्यायिक सक्रियता न्यायिक पुनरावलोकन का ही एक भाग है भारत में न्यायिक सक्रियता को 1973 के आधारभूत ढांचे की संकल्पना को अपनाया गया है परंतु वास्तविक रूप से 1982 के एसपी गुप्ता बनाम भारत संघ (न्यायाधीशों के स्थानांतरण संबंधी वाद) से मानी जाती है।
परंपरागत न्यायिक पुनरावलोकन
भारतीय संविधान में कहीं भी न्यायिक पुनरावलोकन शब्द का प्रयोग नहीं हुआ है लेकिन अनुच्छेद 13 अनुच्छेद 32 अनुच्छेद 131 अनुच्छेद 368 मैं अप्रत्यक्ष रूप से न्यायपालिका को परंपरागत न्यायिक पुनरावलोकन की शक्ति प्रदान की गई है
परंपरागत न्यायिक पुनरावलोकन के प्रमुख नियम
संवैधानिक परिकल्पनाएं
इस नियम के अनुसार न्यायपालिका विधायिका के कानूनों के प्रति सकारात्मक सोच रखेंगे अर्थात विधायिका के कानूनों को विशेष परिस्थितियों में ही अवैध घोषित करेंगे
सार और तत्व का सिद्धांत
इस नियम के अनुसार न्यायपालिका विधायिका के कानून की समीक्षा इस इरादे के आधार पर करती है कि इस कानून को लागू करने के पीछे सरकार की क्या मंशा थी जैसे मादक पदार्थ एक्ट 1955 के मुद्दे पर कहा कि इसमें संसद का उद्देश्य राज्य सरकार की शक्तियों का उल्लंघन करना नहीं था अभी तो मादक पदार्थ का नियंत्रण करना था अतः यह नियम वैध है
वैबर थ्योरी
इस नियम के अनुसार मौलिक अधिकारों को प्राप्त तो किया जा सकता है लेकिन त्यागे नहीं जा सकते।
छदम विधायन
इसका तात्पर्य यह है कि प्रत्यक्ष नहीं हो सकता वह अप्रत्यक्ष भी नहीं हो सकता इसी आधार पर सर्वोच्च न्यायालय ने 2001 में तमिलनाडु की मुख्यमंत्री जयललिता की नियुक्ति को अवैध घोषित कर दिया।
विधायी क्षमता का सिद्धांत
इस नियम के तहत सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी गए अधिनियम को सर्वप्रथम यह देखा जाता है कि उसके निर्माण की शक्ति विधायिका के पास है या नहीं।
आंशिक विभेदन का नियम
इसे पृथक्करण का नियम भी कहते हैं अनुच्छेद 13 (2) के तहत विधायिका का कोई कानून मौलिक अधिकारों का अतिक्रमण करता है तो वह न्यायपालिका उसे दो भागों में बांट सकती है वैध व अवैध।
जहां तक वह कानून मौलिक अधिकारों का अतिक्रमण करता है उस भाग को न्यायपालिका अवैध घोषित कर सकती है।
न्यायिक सक्रियता
जब न्यायपालिका विधि द्वारा उचित प्रक्रिया के आधार पर सविवेक या प्राकृतिक न्याय के आधार पर कानून की समीक्षा करती है तो उसे न्यायिक सक्रियता कहते हैं
भारत में न्यायिक सक्रियता के न्यायधीश पीएन भगवती माने जाते हैं उनके अनुसार जब न्यायपालिका कानूनी प्रक्रिया में ढील देते हुए सीधे नागरिकों की दशा सुधारने वह उन्हें मौलिक अधिकार दिलवाने का कार्य करने लगे तो उसे न्यायिक सक्रियता कहते हैं भारत का संविधान के अनुच्छेद 142 न्यायिक सक्रियता पर बल देता है
जनहित याचिकावाद (pil)
जब किसी व्यक्ति या समुदाय का मौलिक अधिकारों का उल्लंघन होता है यह अज्ञानता व गरीबी के कारण न्यायालय में जाने में सक्षम नहीं है तो उनकी ओर से कोई अन्य व्यक्ति या संस्था जनहित से प्रेरित होकर न्यायालय में वाद ला सकती है ऐसे वाद को जनहित याचिकावाद कहते हैं
जनहित याचिका वाद और द्विपक्षीय वाद में निम्न अन्तर है
द्विपक्षीय वाद को पीड़ित व्यक्ति ही ला सकता है
लेकिन जनहित याचिका वाद को कोई अन्य व्यक्ति या संस्था ला सकती है
द्विपक्षीय वाद में कठोर प्रक्रिया अपनाई जाती है जबकि जनहित याचिका वाद में सरल प्रक्रिया बनाई जाती है
द्विपक्षीय वाद को वापस लिया जा सकता है लेकिन जनहित याचिका वाद को वापस नहीं लिया जा सकता।
कार्यपालिका के सविवेक पर नियंत्रण
इसके तहत सर्वोच्च न्यायालय ने अनेक कार्रवाई की है जैसे केंद्रीय सतर्कता आयोग के आयुक्त पद पर पीके थॉमस की नियुक्ति को अवैध घोषित कर दिया ।केंद्र सरकार के पेट्रोल पंप आवंटन को रद्द कर दिया।
पत्र अधिकारिता
इसके तहत न्यायालय समाचार पत्र को ही रिट मान लेता है अर्थात स्वयं संज्ञान लेता है।
कानून निर्माण
सर्वोच्च न्यायालय ने विशाखा बनाम राजस्थान राज्य वाद में यौन शोषण को परिभाषित कर कानून निर्माण का कार्य किया
इसके अलावा अनुच्छेद 21 का भी विस्तार किया
न्यायिक उत्तरदायित्व
इसका तात्पर्य है न्यायपालिका को जनता के प्रति उत्तरदायी बनाना इस दिशा में सर्वोच्च न्यायालय व उच्च न्यायालय के न्यायाधीश अपनी अपनी संपत्ति का ब्यौरा देते हैं
2007 में एक राष्ट्रीय न्यायिक समिति का गठन किया गया जिसके अध्यक्ष सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश को बनाया गया यह समिति किसी भी सर्वोच्च न्यायालय या उच्च न्यायालय के न्यायाधीश के विरुद्ध संसद से हटाने का प्रस्ताव लाने को कह सकती है हालांकि संसद प्रस्ताव को मानने के लिए बाध्य नहीं है यह समिति न्यायाधीशों के आचरण पर निगरानी रखती है
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