शीतयुद्ध के घटनाक्रम व भारत पर प्रभाव
शीत युद्ध (Cold War) द्वितीय विश्व युद्ध (1939-1945) के बाद का वह दौर था जिसमें अमेरिका और सोवियत संघ (USSR) के बीच राजनीतिक, वैचारिक, आर्थिक और सैन्य तनाव चरम पर था। यह संघर्ष मुख्य रूप से पूंजीवाद (अमेरिका) और साम्यवाद (सोवियत संघ) के विचारधारात्मक मतभेदों पर आधारित था। इसे "शीत" युद्ध इसलिए कहा जाता है क्योंकि इस अवधि में दोनों महाशक्तियों के बीच प्रत्यक्ष सैन्य युद्ध नहीं हुआ, लेकिन विभिन्न तरीकों से प्रतिद्वंद्विता जारी रही।
शीत युद्ध के मुख्य पहलू:
1. वैचारिक संघर्ष:
अमेरिका और उसके सहयोगी पूंजीवादी और लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं का समर्थन करते थे।
सोवियत संघ और उसके सहयोगी साम्यवादी और केंद्रीयकृत आर्थिक व्यवस्थाओं के पक्षधर थे।
2. सत्ता संतुलन और ब्लॉक्स का निर्माण:
अमेरिका के नेतृत्व में नाटो (NATO) और सोवियत संघ के नेतृत्व में वार्सा संधि (Warsaw Pact) के माध्यम से सैन्य गठबंधन बनाए गए।
3. आर्म्स रेस (हथियारों की दौड़):
दोनों देशों ने परमाणु और अन्य आधुनिक हथियारों के निर्माण में प्रतिस्पर्धा की।
यह दौर परमाणु हथियारों की होड़ और अंतरिक्ष अन्वेषण में भी प्रतिस्पर्धा का रहा, जैसे स्पेस रेस।
4. प्रॉक्सी वॉर्स (परिधीय युद्ध):
अमेरिका और सोवियत संघ ने प्रत्यक्ष युद्ध के बजाय तीसरे देशों में अपने हितों की लड़ाई लड़ी, जैसे कोरिया युद्ध, वियतनाम युद्ध, अफ़ग़ानिस्तान में संघर्ष आदि।
5. वैश्विक विभाजन:
दुनिया को दो खेमों में बांटा गया: पूंजीवादी खेमे (अमेरिका) और साम्यवादी खेमे (सोवियत संघ)।
कई गुट-निरपेक्ष देशों ने खुद को इस संघर्ष से अलग रखने की कोशिश की।
शीत युद्ध के प्रमुख घटनाक्रम:
1947: ट्रूमैन डॉक्ट्रिन और मार्शल प्लान के तहत अमेरिका का साम्यवाद रोकने का प्रयास।
1948-1949: बर्लिन ब्लॉकेड और बर्लिन एयरलिफ्ट।
1950-1953: कोरिया युद्ध।
1962: क्यूबा मिसाइल संकट (Cuban Missile Crisis), जिसमें परमाणु युद्ध का खतरा चरम पर पहुंच गया।
1979-1989: सोवियत-अफ़ग़ान युद्ध।
शीत युद्ध का अंत:
1980 के दशक में, सोवियत संघ के नेता मिखाइल गोर्बाचोव द्वारा ग्लासनोस्त (खुलापन) और पेरेस्त्रोइका (पुनर्गठन) की नीतियों ने सोवियत संघ को कमजोर कर दिया।
1989 में बर्लिन की दीवार का गिरना और पूर्वी यूरोप में साम्यवादी सरकारों का पतन।
1991 में सोवियत संघ का विघटन और अमेरिका का एकमात्र महाशक्ति के रूप में उभरना।
शीत युद्ध के प्रभाव:
वैश्विक राजनीति और सैन्य संरचना में स्थायी परिवर्तन।
अंतरराष्ट्रीय संगठनों और समझौतों का विकास।
तीसरी दुनिया के देशों में राजनीतिक अस्थिरता।
अंतरिक्ष और प्रौद्योगिकी में प्रगति।
शीत युद्ध ने 20वीं सदी की विश्व राजनीति को गहराई से प्रभावित किया और आज भी उसके प्रभाव देखे जा सकते हैं।
शीत युद्ध का भारत पर प्रभाव कई स्तरों पर पड़ा। भारत ने शीत युद्ध के दौरान "गुट-निरपेक्ष आंदोलन" (Non-Aligned Movement - NAM) का नेतृत्व किया, जिससे वह दोनों महाशक्तियों (अमेरिका और सोवियत संघ) के बीच संतुलन बनाए रखने में सफल रहा। हालाँकि, इस दौर में भारत ने कई चुनौतियों और अवसरों का सामना किया।
1. गुट-निरपेक्ष आंदोलन और भारत
भारत ने पंडित जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में गुट-निरपेक्ष आंदोलन की नींव रखी।
भारत ने शीत युद्ध के दौरान किसी भी गुट (अमेरिका या सोवियत संघ) का सीधा पक्ष लेने से बचने का प्रयास किया।
गुट-निरपेक्षता ने भारत को तीसरी दुनिया के देशों में एक नेतृत्वकारी भूमिका दिलाई।
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2. आर्थिक प्रभाव
भारत ने औद्योगिकीकरण और आत्मनिर्भरता पर जोर दिया।
भारत को सोवियत संघ से भारी आर्थिक और तकनीकी सहायता मिली, जैसे कि भिलाई और बोकारो इस्पात संयंत्रों की स्थापना।
अमेरिका ने भी भारत को सहायता दी, लेकिन भारत का झुकाव आर्थिक और सैन्य सहयोग के मामले में सोवियत संघ की ओर अधिक रहा।
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3. सैन्य और रणनीतिक प्रभाव
1971 में भारत और पाकिस्तान युद्ध के दौरान भारत ने सोवियत संघ के साथ मित्रता और सहयोग की संधि (Indo-Soviet Treaty of Peace and Friendship) पर हस्ताक्षर किए।
सोवियत संघ ने भारत को आधुनिक हथियार और सैन्य तकनीक मुहैया कराई।
अमेरिका ने पाकिस्तान का समर्थन किया, जिससे भारत-अमेरिका संबंधों में तनाव बढ़ा।
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4. राजनीतिक प्रभाव
शीत युद्ध के दौरान भारत ने वैश्विक मंच पर अपनी स्वतंत्र और तटस्थ विदेश नीति बनाए रखी।
भारत ने अफ्रीका और एशिया के नव स्वतंत्र देशों को औपनिवेशिक ताकतों के खिलाफ समर्थन दिया।
हालांकि, सोवियत-अफगान युद्ध और अमेरिका-चीन संबंधों के बदलते समीकरण ने भारत की स्थिति को चुनौती दी।
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5. पड़ोसी देशों पर प्रभाव
पाकिस्तान:
पाकिस्तान ने अमेरिका के गुट का समर्थन किया और सैन्य गठबंधन जैसे SEATO और CENTO में शामिल हुआ।
भारत और पाकिस्तान के बीच तनाव और युद्ध (1947, 1965, 1971) का एक बड़ा कारण शीत युद्ध की वैश्विक राजनीति थी।
चीन:
शीत युद्ध के दौरान भारत और चीन के संबंध खराब हुए, खासकर 1962 के युद्ध के बाद।
चीन ने सोवियत संघ और भारत दोनों के साथ अपने संबंधों को लेकर संतुलन बनाए रखा।
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6. अंतरराष्ट्रीय संस्थानों में भूमिका
भारत ने संयुक्त राष्ट्र जैसे मंचों पर शांति बनाए रखने और विवादों के समाधान में अहम भूमिका निभाई।
भारत ने परमाणु हथियारों के प्रसार को रोकने के लिए प्रयास किए और परमाणु अप्रसार संधि (NPT) पर हस्ताक्षर करने से इंकार कर दिया।
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7. संस्कृति और शिक्षा पर प्रभाव
भारत में सोवियत संघ से प्रेरित कई सांस्कृतिक कार्यक्रम और पुस्तकें आईं, जो साम्यवाद और समाजवाद को बढ़ावा देती थीं।
भारत और सोवियत संघ के बीच शैक्षणिक आदान-प्रदान ने वैज्ञानिक और तकनीकी क्षेत्रों में प्रगति को बढ़ावा दिया।
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8. शीत युद्ध के अंत का प्रभाव
1991 में सोवियत संघ के विघटन के बाद भारत को अपनी विदेश नीति में बड़े बदलाव करने पड़े।
भारत ने आर्थिक उदारीकरण शुरू किया और पश्चिमी देशों, विशेषकर अमेरिका के साथ संबंध सुधारने पर ध्यान दिया।
सोवियत संघ के पतन से भारत ने अपनी रक्षा आपूर्ति को प्रभावित होते हुए देखा।
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निष्कर्ष
शीत युद्ध के दौरान भारत ने तटस्थता की नीति अपनाकर अपनी संप्रभुता और स्वतंत्रता बनाए रखी। हालांकि, भारत को अपनी सीमाओं पर युद्ध, भू-राजनीतिक तनाव और आर्थिक चुनौतियों का सामना करना पड़ा। शीत युद्ध के दौरान भारत का गुट-निरपेक्ष आंदोलन विश्व राजनीति में एक महत्वपूर्ण पहल बन गया, जिसने भारत को वैश्विक स्तर पर एक मजबूत पहचान दिलाई।
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